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________________ 280 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन हिंसा के दोष की बात नहीं है, सारे दोष प्रमाद की भावभूमि में ही सक्रिय होते हैं। प्रमाद के कारण ही व्यक्ति अपने मान-सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा आदि के लिए हिंसा, झूठ, चोरी आदि दोष या कर्म करता है। अप्रमाद का स्वरूप एवं महत्त्व दुःख-मुक्ति के लिए प्रमाद का त्याग अनिवार्य है । दृष्टि सम्यक् हो जाने के पश्चात् भी प्रमाद पीछा नहीं छोड़ता । विषयों से विरक्ति हो जाने के पश्चात् भी प्रमाद गलियां बनाकर आ घेरता है । वह सजग व्यक्ति से ही भय खाता है । अन्यथा वह व्यक्ति को भयभीत बनाये रखता है। आचारांग स्पष्ट रूप से निरूपण करता है कि जो प्रमत्त है उसे भय है तथा जो अप्रमत्त जीवन जीता है उसे किसी प्रकार का भय नहीं है-"सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं।"14 इसलिए आचारांगसूत्र प्रेरित करता है-उठो! प्रमाद मत करो-"उद्विते णो पमादए।" अप्रमत्तता के स्वरूप पर विचार करें तो समझ में आता है कि यह हमें निर्दोष बनाने की महत्त्वपूर्ण साधना है। मुझ पर किसी प्रकार का दोष हावी न हो, मैं दोषयुक्त न बनें, इस प्रकार की सावधानी अप्रमत्तता है । इसे जागरूकता भी कहा जा सकता है । ऐसा साधक आत्मस्वरूप से विचलित नहीं होता एवं कषायों में आबद्ध नहीं होता। प्रमाद आता है तो साधक की सजगता से वह पलायन कर जाता है। सजगता और प्रमाद एक दूसरे के विरोधी हैं। दोनों साथ नहीं रह सकते। इसलिए प्रमाद को दूर भगाने के लिए सजग होना आवश्यक है। सजगता में ध्यानसाधना की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। साधक अपने लक्ष्य के प्रति निरन्तर सजग रहता है। इसमें जरा भी चूक होती है तो उसे प्रमाद कहा जाता है । यह प्रमाद ही है जो व्यक्ति को सम्यग्ज्ञान होने पर भी उसका आचरण नहीं करने देता है। ___ हमारा विवेक जागृत रहे, विवेक अविवेक में परिणत न हो जाय, इसकी सावधानी आवश्यक है । अप्रमाद विवेक की महिमा को बढ़ाता है-"एवं से अप्पमादेण विवेगं किट्टिति वेदवी।" प्रमत्त व्यक्ति आत्मलक्ष्य से भटके हुए होते हैं । कुछ को आत्मलक्ष्य का बोध होता है तो कुछ को नहीं । आत्मलक्ष्य का बोध नहीं होना अत्यन्त बुरी स्थिति है। हम में से अधिकांश लोग इस बुरी स्थिति में जी
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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