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________________ 268 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन यथा- वह इस प्रकार सिद्ध, बुद्ध, विरत, निष्पाप, दान्त, वीतराग, शक्तिसम्पन्न एवं त्राता होता है। एक बार सिद्धावस्था मोक्ष को प्राप्त कर लेने के पश्चात् वह पुनः संसार में उत्पन्न नहीं होता। अध्यात्म दर्शन इसिभासियाइं में आध्यात्मिक चिन्तन मुखर हुआ है। इसमें काम-भोगों एवं इन्द्रियों के विषयों में अनासक्त रहने की पदे-पदे प्रेरणा की गई है। क्रोध, मान, माया, लोभादि किस प्रकार हानि पहुंचाते हैं एवं इन पर किस प्रकार विजय प्राप्त की जा सकती है, इसकी चर्चा इस आगम में प्रचुररूपेण समुपलब्ध है। शौर्यायण ऋषि कहते हैं कि दुर्दान्त पाँच इन्द्रियाँ ही प्राणियों के लिए संसार का कारण बनती हैं। यदि उन्हें संयमित कर लिया जाए तो वे ही निर्वाण का कारण बन जाती हैं। इन पाँच इन्द्रियों के विषयों में जो नहीं बहता वह उत्तम पुरुष होता है। मनोज्ञ (इष्ट) शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श आदि में आसक्ति, राग, गृद्धि, मूर्छा न हो तथा अमनोज्ञ (अनिष्ट) शब्द, रूपादि के प्रति द्वेष न हो तभी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम होता है तथा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। __ ऋषि वर्द्धमान कहते हैं कि जागृत रहने वाले मुनि की पाँच इन्द्रियाँ सुप्त रहती हैं तथा सुप्त व्यक्ति की पाँचों इन्द्रियाँ जागृत रहती हैं। सुप्तमुनि पाँचों इन्द्रियों से कर्मरज को ग्रहण करता है तथा जागृतमुनि इन्द्रियों के संयम द्वारा कर्मरज को रोकता है। वर्तमान ऋषि कहते हैं मनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श के प्रति राग नहीं करना चाहिए तथा इनके अमनोज्ञ होने पर द्वेष नहीं करना चाहिए। यही आध्यात्मिक साधना का मूल अभ्यास है। ऐसा करने वाला व्यक्ति कर्म-आसव को रोक देता है। जिस प्रकार दुर्दान्त घोड़े सारथी को राजपथ से हटाकर उन्मार्ग में ले जाते हैं, उसी प्रकार दमन नहीं की गई इन्द्रियाँ आत्मा को बलपूर्वक कुमार्ग में ले जाती हैं। किन्तु जब वे सुदान्त हो जाती हैं तो विनीत घोड़े की भांति उन्मार्ग पर नहीं ले जाती। इन्द्रियों को नियन्त्रित करने के लिए मन को जीतना आवश्यक है। वर्द्धमान अध्ययन में कहा गया है कि साधक मन को जीतकर इन्द्रिय-विषयों में प्रवृत्ति को रोके तथा फिर विवेक रूपी हाथी पर आरूढ़ होकर शस्त्रधारी शूरवीर
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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