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________________ 'इसिभासियाई'का दार्शनिक विवेचन 265 कर्म के आदान या आम्नव के कारणों का उल्लेख महाकाश्यप अध्ययन में हुआ है। वहाँ पर मिथ्यात्व, अविरति (अनिवृत्ति), प्रमाद, कषाय एवं योग को कर्मानव का कारण कहा गया है।" जैन दर्शन के तत्त्वार्थसूत्रादि ग्रन्थों में बन्ध-हेतु के ये ही पाँच प्रकार निरूपित हैं। इन्हीं से कर्मों का बंध होता है। ऋषि महाकश्यप का कथन है कि संसारी प्राणी के लिए कर्म का वही स्थान है जो अंडे और बीज का है। कर्म के अनुसार ही जीव सन्तान, भोग एवं नाना अवस्थाओं को प्राप्त करता है। संसार की परम्परा का मूल पूर्वकृत पुण्य और पाप है। अतः पुण्य एवं पाप के निरोध के लिए सम्यक् परिव्रजन करना चाहिए। संसार में अशान्ति का मूल कर्म है- कम्ममूलमणिव्वाणंसंसारे सव्वदेहिणं। संसार के जितने दुःख एवं कष्ट हैं, वे प्रायः पूर्वकृत कर्म के कारण प्राप्त होते हैं। महाकाश्यप अध्ययन में कहा गया है कि हस्तछेदन, पादछेदन आदि विविध प्रकार के दुःख पूर्वकृत कों से प्राप्त होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ ऋषि महाकाश्यप पापकर्मों को न करने की प्रेरणा कर रहे हैं। कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता, अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण, निधत्त, निकाचना आदि हैं। महाकाश्यप अध्ययन में बद्ध, स्पृष्ट, निधत्त, उपक्रम, उत्केर, संक्रमण, निधत्त, निकाचना आदि अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। हरिगिरि अध्ययन में कहा गया है कि जिस प्रकार ध्वनि की प्रतिध्वनि होती है उसी प्रकार कर्म के अनुसार कान्ति, जाति, वय या अवस्था का निर्माण होता है। जीव दो प्रकार की वेदनाओं का वेदन करते हैं। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान यावत् मिथ्यादर्शनशल्य आदि 18 पाप करके जीव असाता या दुःख का वेदन करता है तथा प्राणातिपातविरमण यावत् मिथ्यादर्शन शल्य विरमण से जीव साता अथवा सुख का वेदन करता है। कर्मों में प्रमुख मोहकर्म है। यह कर्मसेना का सेनापति है। मोह का नाश होने पर अन्य कर्मों का नाश हो जाता है। हरिगिरि ऋषि कहते हैं छिन्नमूलाजहावल्ली, सुक्कमूलोजहादुमो। नट्ठमोहंतहा कम्म, सिण्णंवाहतणायक।।"
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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