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________________ 'इसिभासियाई'का दार्शनिक विवेचन 261 सृष्टि का कभी प्रारम्भ हुआ था। इसिभासियाइं के पार्श्व अध्ययन में भी कहा गया है कि यह लोक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, यह लोक कभी नहीं है, ऐसा नहीं है, यह लोक कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है। यह लोक पहले था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। यह लोक ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय और नित्य है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में भी लोक एवं अलोक को शाश्वत भाव के रूप में निरूपित किया गया है।" लोक का स्वरूप षड्द्रव्यात्मक है। षड्द्रव्यों में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय तथा काल द्रव्य की गणना होती है। इनमें से काल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य पंचास्तिकाय के नाम से जाने जाते हैं। पंचास्तिकाय की अवधारणा प्राचीन है, इसकी पुष्टि इसिभासियाई में प्राप्त उल्लेख से होती है। इसमें षड्द्रव्यों का उल्लेख न होकर पंचास्तिकाय का उल्लेख हुआ है। पंचास्तिकाय के लिए भी लोक की भांति कहा गया है कि पंच अस्तिकाय कभी नहीं थे, ऐसा नहीं है, कभी नहीं हैं, ऐसा नहीं है तथा ये कभी नहीं होंगे, ऐसा भी नहीं है। ये ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय एवं अवस्थित हैं।" षड् द्रव्यों में जीवास्तिकाय जीव है एवं शेष पाँच द्रव्य अजीव हैं। पार्श्व अध्ययन में लोक चार प्रकार का कहा गया है- 1. द्रव्यलोक, 2. क्षेत्रलोक, 3. काललोक और 4. भावलोक। लोक आत्मस्वरूप में अवस्थित है। स्वामित्व की अपेक्षा से यह जीवों का लोक है, रचना की अपेक्षा से जीव और अजीव दोनों का लोक है। लोक का अस्तित्व अनादि अनन्त और पारिणामिक है।19 दुःख के कारण एवं उनसे मुक्ति भारतीय चिन्तन परम्परा में दुःख से मुक्ति प्रमुख प्रतिपाद्य रहा है। वस्तुतः दुःख से आत्यन्तिक मुक्ति ही मोक्ष है। प्रश्न यह है कि हमें दुःख क्यों होता है? इसिभासियाइं में दुःख के कारणों पर गहन विचार हुआ है। सामान्यतः अज्ञान को दुःख का मूल माना जाता है। ऋषि गाथापतिपुत्र तरुण अज्ञान को ही परम दुःख के रूप में प्रतिपादित करते हुए कहते हैं अण्णाणंपरमंदुक्खं, अण्णाणाजायते भयं। अण्णाणमूलो संसारो, विविहोसव्वदेहिणं।"
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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