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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
(ii) नाप्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः।
स्यात्प्रमाणैकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधतः।।-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक,नयविवरण, श्लोक 16 13. स्याद्वादमंजरी, श्लोक 28 की टीका, पृ.242 14. अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, श्लोक 28 15. सकलादेशः प्रमाणाधीनो, विकलादेशो नयाधीनः। -सर्वार्थसिद्धि 1.6.24 16. नयाश्चानन्ताः, अनन्तधर्मत्वात् वस्तुनः। -स्याद्वादमंजरी, अगास, पृ. 243 17. द्रष्टव्य, व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक 18, उद्देशक 6 18. गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे या
सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति।। समयसार, गाथा 60 19. द्रष्टव्य, परमभावप्रकाशक नयचक्र, पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर, 2001 20. पं. दलसुख मालवणिया लिखते हैं - काल और क्षेत्र, पर्यायों के कारण होने से, यदि पर्यायों __ में समाविष्ट कर लिए जाएं तब तो मूलतः दो ही दृष्टियाँ रह जाती हैं-द्रव्यार्थिक और
पर्यायार्थिक । - आगमयुग का जैनदर्शन, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, पृ. 117 21. गुणः पर्याय एवात्र सहभावो विभावितः।
इति तद्गोचरो नान्यस्तृतीयोऽस्ति गुणार्थिकः।।-तत्त्वार्थश्लोककार्तिक, नय विवरण,
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित माइल्लधवलकृत नयचक्र में प्रदत्त परिशिष्ट 2, श्लोक 22 22. अनभिनित्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः । - सर्वार्थसिद्धि, 1.33, पृ. 100 23. डॉ. अनेकांत कुमार जैन, दार्शनिक समन्वयय की जैन दृष्टि (नयवाद), प्राकृत जैनशास्त्र ___और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली, सन् 2011, पृ. 98 24. संकल्पो निगमस्तत्र भवोऽयं तत्प्रयोजनः।
तथा प्रस्थादिसंकल्पः तदभिप्राय इष्यत।।-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, नय विवरण, श्लोक 32 25. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक 1 26. णेगेहिं माणेहिं मिणइ त्ति णेगमस्स य निरुत्ती।- अनुयोगद्वारसूत्र, सूत्र 606 27. गुणप्रधानभावेन धर्मयोरेकधर्मिणि। विवक्षा नैगमोऽत्यन्तभेदोक्तिः स्यात्तदाकृतिः।
अपि च अन्योन्यगुणभूतैकभेदाभेदा प्ररूपणात् । नैगमोऽर्थान्तरत्वोक्तौ नैगमाभास इष्यते।
- अकलंककृत, लघीयस्त्रय, तृतीय प्रवचन प्रवेश, षष्ठप्रवचन परिच्छेद, कारिका 66 28. धर्मयोधर्मिणोधर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपर्सजनभावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगमः। ___- प्रमाणनयतत्त्वालोक, 7.7 29. सच्चैतन्यमात्मनीति धर्मयोः।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, 7.8