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नय एवं निक्षेप
अशाश्वत? तो उन्होंने कहा कि द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से जीव शाश्वत है, क्योंकि अनेक जन्मों में भी जीव के जीवत्व का नाश नहीं होता । पर्यायार्थिक नय से वह अशाश्वत है, क्योंकि नरक, तिर्यंच, मनुष्य आदि योनियाँ बदलती रहती हैं। किसी एक योनि में उस जीव को शाश्वत नहीं कहा जा सकता।' इस तरह जैनागमों में दृष्टिकोण विशेष अथवा अपेक्षा विशेष का प्रयोग मिलता है, जो नय सिद्धान्त के विकास का आधार बना है।
एक ही वस्तु की व्याख्या विभिन्न प्रकार से करना भी नयदृष्टि है। उदाहरण के लिए व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में कहा गया है - मैं द्रव्यरूप से एक हूँ, ज्ञान एवं दर्शन की दृष्टि से दो प्रकार का हूँ। आत्मप्रदेशों की अपेक्षा से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ तथा उपयोग की दृष्टि से मैं अनेक भूत, वर्तमान और भविष्य के विविध परिणामों के योग्य भी हूँ।' इस प्रकार आत्मा के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टियों से विवेचन प्राप्त होता है । आगमों में जीव का विवेचन करते हुए उसके एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, चौदह एवं 563 भेद प्राप्त होते हैं। जीवों को समझाने के लिए विभिन्न दृष्टियों का प्रयोग किया गया है। जिसमें जीव के एक प्रकार को संग्रह नय से तथा दो से लेकर समस्त भेदों को व्यवहार नय से समझा जा सकता है। स्थानांग सूत्र में 'एगे आया ” ( आत्मा एक है) कथन संग्रह नय से किया गया है। व्यवहार की दृष्टि से जीव संख्या में अनन्त स्वीकार किए गए हैं। व्यवहारनय से ही संसारी एवं सिद्ध भेदों के आधार पर जीव के दो प्रकार किए गए हैं। बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के भेद से जीव तीन प्रकार के हैं। नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति एवं देवगति से संसारी जीव चार प्रकार के हैं तथा इनमें सिद्ध गति मिलाने पर पाँच प्रकार के हो जाते हैं। इसी प्रकार पाँच इन्द्रियों के आधार पर जीवों के पाँच प्रकार, पृथ्वीकायिक- अप्कायिक- तेजस्कायिक- वायुकायिक वनस्पतिकायिक- त्रसकायिक के आधार पर जीवों के छः प्रकार सम्भव हैं। चौदह गुणस्थानों के आधार पर तथा बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय इन सातों के पर्याप्त एवं अपर्याप्त भेदों से जीव के चौदह प्रकार होते हैं । जीव के 563 भेदों का कथन करते समय नारक के 14, तिर्यञ्च के 48, मनुष्य के 303 एवं देवों के 198 भेद गिने जाते हैं।