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________________ 216 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन सकता है । आचार्य यशोविजय ने जैनतर्कभाषा में अर्थावग्रह का यही स्वरूप स्पष्ट किया है, यथा-“स्वरूप, नाम, जाति, क्रिया, गुण और द्रव्य की कल्पना से रहित सामान्यग्रहण अर्थावग्रह है।21 आचार्य जिनभद्र इस प्रसंग में कुछ अन्य मतावलम्बी दार्शनिकों के दो मतों का उल्लेख कर उनका खण्डन करते हैं । संक्षेप में यहाँ यह चर्चा प्रस्तुत है1. प्रथम मत में संकेतादि विकल्प से रहित, सद्योजात बालक को सामान्य ग्रहण होता है। जो विषयों (पदार्थों) से परिचित हैं उन्हें तो प्रथम समय में ही विशेष ज्ञान हो जाता है । इस मत का खण्डन करते हुए जिनभद्र कहते हैं कि इस प्रकार तो विषय से अधिक परिचित व्यक्ति को प्रथम समय में ही 'यह शंख का शब्द है' इत्यादि अवाय ज्ञान भी हो जाएगा। पुरुष की शक्तियों में तारतम्य विशेष दिखाई देते हैं, किन्तु एक समय में अनेक उपयोग नहीं होते। इस प्रकार यदि हो तो सारा मतिज्ञान अवाय मात्र हो जाये अथवा अवग्रह मात्र रह जाये। यदि प्रथम समय में विशेष ज्ञान का होना माना जाये तो अर्थावग्रह के एक समय तक होने की बात खण्डित हो जाती है, जो आगमविरुद्ध है। इसलिए परिचित विषयों का ज्ञान होने में भी प्रथम समय में सामान्य ग्रहण स्वीकार करना चाहिए। जिनभद्र अवग्रह आदि के क्रम को लेकर दृढ़ हैं। उनके मत में अवग्रह के बिना ईहा, ईहा के बिना अवाय और अवाय के बिना धारणा नहीं होती है। 2. दूसरे मत में अर्थावग्रह आलोचनापूर्वक होता है, ऐसा कहा गया है । आलोचन को सामान्यग्राही माना गया है और अर्थावग्रह काल में शब्द रूपादि से भिन्न ज्ञात होता है । आलोचना ज्ञान का उल्लेख कुमारिलभट्ट ने भी निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का विवेचन करते हुए किया है, यथा अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम् । बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् ॥ - श्लोकवार्तिक, प्रत्यक्षसूत्र, 112 "पहले निर्विकल्पक आलोचना ज्ञान होता है । वह बालक एवं मूक के ज्ञान के समान निर्विकल्पक तथा शुद्ध वस्तु से उत्पन्न होता है।" इस आलोचना ज्ञान का आचार्य जिनभद्र ने खण्डन किया है । इसके खण्डन
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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