SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 199 जैन न्याय में प्रमाण - विवेचन कहा है।" उपलम्भ का अर्थ है साध्य के होने पर साधन का होना तथा अनुपलम्भ का अर्थ है साध्य के नहीं होने पर साधन का नहीं होना । तर्क - प्रमाण के द्वारा साध्य एवं साधन की त्रैकालिक व्याप्ति का ज्ञान होता है, जो तर्क को प्रमाण माने बिना सम्भव नहीं है । तर्क एक प्रकार का निश्चयात्मक एवं परस्पर अविरोधी ज्ञान है, इसलिए वह प्रमाण है I स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को प्रमाण रूप में प्रतिपादित कर जैन दार्शनिकों ने प्रमाण - जगत् को महान् योगदान किया है, क्योंकि प्रमाण का प्रयोजन हेयोपादेय अर्थ का ज्ञान कराना है, ताकि प्रमाता हेय वस्तु का त्याग एवं उपादेय का उपादान कर सके। स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञान इस कार्य में समर्थ हैं, अतः ये दोनों प्रमाण रूप लोक - व्यवहार के लिए उपयोगी हैं। तर्क को प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित कर जैन दार्शनिकों ने व्याप्ति के ग्राहक तत्त्व की समस्या का स्थायी समाधान खोज लिया है। तर्क-प्रमाण के बिना जैन दार्शनिक अनुमान - प्रमाण की प्रवृत्ति स्वीकार नहीं करते हैं। जैनदर्शन में स्मृति - प्रमाण का फल प्रत्यभिज्ञान है, प्रत्यभिज्ञान का फल तर्कप्रमाण है और तर्क-प्रमाण का फल अनुमान - प्रमाण है । स्मृति - प्रमाण धारणा (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेद ) का फल है। 4. अनुमान -प्रमाण चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त समस्त भारतीय दर्शन अनुमान -प्रमाण को अंगीकार करते हैं । अनुमान - प्रमाण का हमारे जीवन में बड़ा महत्त्व है। हमारी अनेक दैनिक गतिविधियाँ अनुमान - प्रमाण से संचालित हैं । जैन दार्शनिकों ने अनुमान -प्रमाण को परोक्ष - प्रमाण माना है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष के सदृश विशदात्मक या स्पष्ट नहीं होता और इसमें हेतु के द्वारा साध्य का ज्ञान किया जाता है। हेतु या साधन के द्वारा साध्य के ज्ञान को ही जैनदर्शन में अनुमान - प्रमाण कहा गया है"; जैसे - धूम हेतु के द्वारा पर्वत में स्थित अग्नि साध्य का ज्ञान करना अनुमान है एवं 'कृतकत्व' हेतु के द्वारा शब्द में 'अनित्यता' साध्य को सिद्ध करना भी अनुमान है । अनुमान के दो भेद प्रसिद्ध हैं- स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान । यद्यपि 'अनुयोगद्वार सूत्र' में अनुमान के पूर्ववत्, शेषवत् एवं दृष्टसाधर्म्यवत् नामक तीन भेद प्रतिपादित हैं, 2" किन्तु जैन प्रमाण - मीमांसा में स्वार्थ एवं परार्थ भेद प्रतिष्ठित 28
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy