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________________ जैन न्याय में प्रमाण-विवेचन 185 परीक्षा की जाती है। प्रमाणों से प्रमेय अर्थ को जाना भी जाता है तथा ज्ञात अर्थ को सम्यक्तया जाना है या नहीं, - इसकी परीक्षा भी की जाती है। भारतीय चिन्तन-परम्परा में प्रमाणों का विचार न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त, बौद्ध, चार्वाक एवं जैन ये सभी भारतीय दर्शन करते हैं, किन्तु 'न्याय' का विकास मुख्यतया अग्रांकित तीन परम्पराओं में हुआ है- (1) महर्षि गौतम प्रणीत न्यायदर्शन, (2) बौद्धदर्शन तथा (3) जैनदर्शन। गौतम (पंचम शती ई. पूर्व) प्रणीत न्यायदर्शन का विकास वात्स्यायन (400 ई.) उद्द्योतकर (छठी शती), वाचस्पतिमिश्र (841 ई.), जयन्तभट्ट (850-910 ई.), भासर्वज्ञ (930 ई.) आदि नैयायिकों ने किया, जिसकी अन्तिम परिणति गंगेश (12 वीं शती) से प्रारम्भ नव्यन्याय के रूप में हुई, जिसका प्रभाव पन्द्रहवीं शती के पश्चात् रचित जैनन्याय की कृतियों पर भी दृष्टिगोचर होता है। बौद्धन्याय का व्यवस्थित प्रारम्भ दिङ्नाग (470-530 ई.) से हुआ जो धर्मकीर्ति (620-690 ई.) धर्मोत्तर (700 ई.), प्रज्ञाकरगुप्त (8 वीं शती), शान्तरक्षित (8 वीं शती), कमलशील (8 वीं शती) आदि दार्शनिकों की कृतियों में विकसित होता रहा। जैनन्याय का मूल हमें आगम-साहित्य में दृग्गोचर होता है। ‘अनुयोगद्वार सूत्र' में प्रमाण का विस्तृत निरूपण, भगवती सूत्र' एवं 'स्थानांग सूत्र' में प्रमाण-भेदों का उल्लेख इसका निदर्शन है। वैसे जैनदर्शन में सम्यक्-ज्ञान को प्रमाण कहा है, अतः पंचविध ज्ञान का वर्णन करने वाले 'नन्दीसूत्र', 'षट्खण्डागम' आदि ग्रन्थ भी प्रमाण-विद्या अथवा न्याय-विद्या से सम्बद्ध कहे जा सकते हैं, किन्तु न्याय के व्यवस्थित विकास में सिद्धसेन (पाँचवीं शती) विरचित 'न्यायावतार' प्रथम कृति के रूप में उपलब्ध होती है, जिसमें मात्र 32 श्लोकों में प्रमाण-व्यवस्था किंवा जैन न्याय का संक्षिप्त निरूपण हुआ है। सिद्धसेन के पश्चात् भट्ट अकलंक (720-780 ई.) जैन न्याय के व्यवस्थापक आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, तत्त्वार्थवार्तिक एवं अष्टशती की रचना की। इनके पूर्व सुमति (7 वीं शती), पात्रस्वामी (7 वीं शती) आदि दार्शनिकों के ग्रन्थ चर्चित रहे, किन्तु वे अभी अनुपलब्ध हैं । चौथी-पाँचवी शती में एक महान् जैन नैयायिक मल्लवादी क्षमाश्रमण हुए जिन्होंने 'द्वादशारनयचक्र' में तत्कालीन
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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