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________________ सम्यग्दर्शन 165 आगम में दृष्टि तीन प्रकार की कही गई है-1. सम्यग्दृष्टि 2. मिथ्यादृष्टि और 3. मिश्रदृष्टि । ये तीनों दृष्टियाँ जीव की आन्तरिक जीवन-दृष्टि की परिचायक हैं। वैसे तो प्रत्येक जीव की दृष्टि एक दूसरे से भिन्न ही होती है, इसलिए दृष्टि के अनन्त भेद भी हो सकते हैं, किन्तु उन अनन्त दृष्टियों का समावेश स्थानांगसूत्र, प्रज्ञापना सूत्र आदि आगमों में उपर्युक्त तीन दृष्टियों में किया गया है। तदनुसार लोक में कुछ जीव सम्यग्दृष्टियुक्त होते हैं, कुछ जीव मिथ्यादृष्टि युक्त होते हैं तथा शेष कुछ जीव मिश्रदृष्टि वाले होते हैं। प्रश्न यह होता है कि किसे सम्यग्दृष्टि कहा जाये, किसे मिथ्यादृष्टि एवं किसे मिश्रदृष्टि? स्थूलदृष्टि से कहा जाये तो जो जीव पदार्थों के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानकर वैसा श्रद्धान नहीं करते हैं, विषय भोगों में रमण करना अच्छा समझते हैं या मूढ बने हुए हैं वे मिथ्या दृष्टि होते हैं। इसके विपरीत जो जीव-जीवादि पदार्थों को यथाभूत रूप में जानकर उन पर वैसा श्रद्धान करते हैं, वैषयिक सुखों से विरक्त होकर विकार-विजय के मार्ग की ओर उन्मुख होने में अपना हित समझते हैं वे सम्यग्दृष्टि होते हैं। जब कोई जीव सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि न हों तो वे सम्यग्मिथ्यादृष्टि या मिश्रदृष्टि कहे गए हैं। मिश्रदृष्टि का काल अन्तर्मुहूर्त जितना होता है, जबकि मिथ्यादृष्टि अनन्तकाल तक रह सकती है। सम्यग्दृष्टि में प्रत्येक का काल भिन्न-भिन्न है। सम्यग्दर्शन के त्रिविध स्वरूप 1. तत्त्वार्थश्रद्धान- उत्तराध्ययन सूत्र में सम्यक्त्व अथवा सम्यग्दर्शन शब्द का अनेक बार प्रयोग हुआ है। वहाँ सम्यग्दर्शन का स्वरूप निरूपित करते हुए कहा गया है तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं। भावेण सद्दहतस्स, सम्मत्तं तु वियाहियं। __-उत्तराध्ययनसूत्र, 28.15 जो जीव, अजीव आदि पदार्थ जैसे हैं उनके वैसे होने का स्वतः अथवा उपदेश से भावपूर्वक श्रद्धान होना सम्यक्त्व कहा गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी समयसार में जीवादि पदार्थों पर श्रद्धा करने को सम्यग्दर्शन कहा है।' जो जीवादि
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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