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________________ कर्म - साहित्य में तीर्थङ्कर प्रकृति 147 नरकगति वाला जीव नील एवं कृष्ण लेश्याओं में तीर्थंकर नामकर्म का बंध नहीं करता है। तीसरी नरक में कापोतलेश्यी को ही आगामी भव में तीर्थंकर बनने का उल्लेख मिलता है। महाबन्ध के काल-प्ररूपणा-खण्ड में तीर्थंकर की आगति में वैमानिक से जो जीव आता है, उसमें तेजो, पद्म एवं शुक्ल लेश्याएं बतायी गई हैं तथा नरक से जो जीव आता है, उसमें एक मात्र कापोत लेश्या बतायी गई है। श्वेताम्बर परम्परा में तीर्थंकर की आगति में इन चार लेश्याओं के अतिरिक्त नील लेश्या का भी कथन किया जाता है, जिसका पुष्ट कारण ध्यान में नहीं आता। ___(6) नरक एवं देवलोक के असंख्यात जीव इस समय भी तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध कर रहे हैं। महाबंध में स्पष्ट कहा है - "तित्थयराणं बंधगा असंखेज्जा,।" अर्थात् तीर्थंकर के बंधक असंख्यात हैं। ___(7) गोम्मटसार में कहा गया है कि तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध तो स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक-तीनों वेदों में हो सकता है, किन्तु उदय केवल पुरुषवेद में ही होता है। ध्यातव्य है कि स्त्री का तीर्थकर होना श्वेताम्बरों ने ही मान्य किया है। इसका उदाहरण मल्ली भगवती हैं। उदय, उदीरणा एवं सत्ता विषयक विचार उदय के सम्बन्ध में यह निर्विवाद रूप से मान्य है कि तीर्थंकर प्रकृति का उदय तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान में होता है। अतः जन्म लेते ही कोई तीर्थकर नहीं बन जाता है। चार घाती कर्मों का क्षय करने के साथ ही तेरहवें गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति का उदय होता है। यह बात अवश्य है कि इस प्रकृति का जिस भव में उदय होने वाला है, उसका गर्भ-प्रवेश के साथ ही प्रभाव प्रारम्भ हो जाता है। तीर्थंकर की माता के द्वारा चौदह या सोलह स्वप्न देखना इसी का प्रतीक है। तीर्थकर नामकर्म की उदीरणा भी सम्भव है, किन्तु यह उदीरणा मात्र तेरहवें गणस्थान में ही होती है। चौदहवें गणस्थान में जिन प्रकृतियों का उदय रहता है, उनकी उदीरणा तेरहवें गुणस्थान तक ही होने का नियम है। चौदहवें में उदीरणा नहीं होती है। सत्ता की दृष्टि से विचार किया जाये तो तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता प्रथम
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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