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________________ 134 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन पूर्वोत्तराकारपरिहारस्वीकारस्थितिलक्षणपरिणामेनास्यार्थक्रियोपपत्तिः। अर्थात् पूर्वपर्याय के परिहार, उत्तर पर्याय के स्वीकार तथा द्रव्य रूप में स्थिति आदि परिणामों से अर्थक्रिया की उपपत्ति हो जाती है। द्वितीय तर्क- एकान्त नित्यवाद एवं एकान्त अनित्यवाद में कृतनाश एवं अकृत-अभ्यागम दोष आते हैं, जबकि नित्यानित्यवाद (परिणामिनित्यवाद) में व्यवस्था बन जाती है। अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका में क्षणिकवाद का खण्डन करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने उसमें कृतप्रणाश, अकृतकर्मभोग, भवभंग, प्रमोक्षभंग और स्मृतिभंग दोष निरूपित किए हैं कृतप्रणाशाकृतकर्म-भोग-भव-प्रमोक्षस्मृतिभंगदोषान्। उपेक्ष्यसाक्षात्क्षणभंगमिच्छन्नहो!महासाहसिकः परस्ते।" बौद्ध दर्शन में वस्तु का प्रतिक्षण निरन्वय विनाश माना जाता है। अतः उसमें किए हुए का फल नहीं मिलने की स्थिति उत्पन्न होती है । बौद्धमत में जिस ज्ञान क्षण में अच्छा या बुरा कार्य किया जाता है उस क्षण का निरन्वय (पूर्ण) विनाश स्वीकार करने से उसके फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार नहीं किए गए या दूसरे के द्वारा किए गए कर्म के फल की प्राप्ति किसी दूसरे को होने की भी स्थिति बनती है । जब कर्मफल की परम्परा ही सम्यक् रूपेण नहीं चलेगी तो पुनर्जन्म एवं मोक्ष की व्यवस्था भी नहीं बन सकती। उनके मत में आत्मा ही नहीं है तो किसका मोक्ष होगा ? क्षणिकवाद में स्मृति की व्यवस्था तो बन ही नहीं सकती, क्योंकि लोक में किसी अन्य के द्वारा देखा गया पदार्थ किसी दूसरे को याद नहीं होता, इसी प्रकार एक क्षण का सम्पूर्ण विनाश होने पर अन्य क्षण में स्मृति कैसे रहेगी? _इसी प्रकार क्षणिकवाद में कर्ता एवं भोक्ता की व्यवस्था नहीं बन सकती, क्योंकि ज्ञानक्षण सन्तान में सदैव भिन्नता के कारण कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व सिद्ध नहीं हो सकता । कर्ता भिन्न एवं भोक्ता भिन्न होगा। एकान्त नित्यवाद में भी कर्ता एवं भोक्ता की व्यवस्था नहीं हो सकती, क्योंकि वहाँ कर्ता सदैव कर्ता ही रहेगा, भोक्ता नहीं हो सकता और भोक्ता सदैव भोक्ता ही रहेगा, कर्ता नहीं हो सकता।
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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