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________________ अनेकान्तवाद का स्वरूप और उसके तार्किक आधार 131 गुरुलघुपर्याययुक्त एवं अनन्त अगुरुलघुपर्यायुक्त है । अतः भाव की दृष्टि से इसका कोई अन्त नहीं । इस प्रकार भगवान महावीर के अनुसार द्रव्य से एवं क्षेत्र से लोक सान्त है तथा काल एवं भाव से अनन्त है। इस तरह अनेकान्तदृष्टि से परिपूर्ण अनेक उदाहरण आगमों में उपलब्ध हैं। अनेकान्तवाद का स्थापन _ जैनाचार्य जन्म से ब्राह्मण पण्डित रहे, अतः अन्य दर्शनों का पाण्डित्य उन्हें प्राप्त था, फिर आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त करके उन्होंने अनेकान्तवाद की स्थापना में पूरी शक्ति लगायी । जैन दार्शनिकों ने एकान्त क्षणभंगवादी बौद्धों, एकान्तनित्यवादी वेदान्तियों एवं नित्य व अनित्य को स्वतन्त्र मानने वाले न्याय-वैशेषिकों का खण्डन करते हुए अनेकान्तवाद का सबल प्रतिष्ठापन किया। इस दृष्टि से जैन दार्शनिक सिद्धसेन (पांचवी शती), समन्तभद्र (पांचवी शती) मल्लवादी (पांचवीं शती) हरिभद्रसूरि (700-770 ई.) भट्ट अकलंक (720-780 ई) विद्यानन्द (775-440 ई), अभयदेव सूरि (10 वीं शती), प्रभाचन्द्र (980-1065 ई.) वादिदेवसूरि (1086-1169 ई.) हेमचन्द्र (1088-1173 ई.) यशोविजय (17 वीं शती) विमलदास आदि का योगदान उल्लेखनीय है। हेमचन्द्राचार्य ने वस्तु में अनेकान्त के मुख्यतः चार प्रकार प्रतिपादित किए हैं स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूपं, वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदेव । विपश्चितां नाथ ! निपीततत्त्वसुधोद्गतोद्गारपरम्परेयम् ॥" चार प्रकार हैं स्यात् नित्य स्यात् अनित्य - नित्यानित्यात्मक स्यात् सामान्य स्यात् विशेष - सामान्यविशेषात्मक 3. स्यात् वाच्य स्यात् अचाच्य - वाच्यावाच्यात्मक/अभिलाप्यानभिलाप्य 4. स्यात् सत् स्यात् असत् - सदसदात्मक वे दीपक से लेकर आकाशपर्यन्त प्रत्येक वस्तु में अनेकान्तवाद को स्वीकार करते हुए कहते हैं - आदीमाव्योम समस्वभावं, स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु। तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतांप्रलापाः ॥"
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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