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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
है । वस्तु का यह स्वरूप जैनदार्शनिक तत्त्वमीमांसीय विवेचन का आधार बना है। वस्तु के स्वरूप को जानने के लिए एवं कथन करने के लिए नयों का प्रयोग किया जाता है। जब किसी दृष्टिकोण विशेष से कथन किया जाता है तो उसकी अभिव्यक्ति स्यात् शब्द से की जाती है। इसे ही स्याद्वाद कहा गया है। जैन दार्शनिकों ने विभिन्न तर्कों के आधार पर वस्तु की अनेकान्तात्मकता को सिद्ध किया है, जिसके अनुसार वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक, नित्यानित्यात्मक, सामान्यविशेषात्मक, भेदाभेदात्मक, भावाभावात्मक तथा एकानेकात्मक कही गई है। अनेकान्तवाद की यह दृष्टि जैनदर्शन के विकास का आधार बनी है। इसी का सुपरिणाम है कि जैनदर्शन में कारण- कार्य सिद्धान्त का विचार करते हुए काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म एवं पुरुषार्थ इन पंच कारण - समवाय के सिद्धान्त का विकास हुआ।
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ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से सम्पूर्ण भारतीय परम्परा में मात्र जैनदर्शन ही ऐसा दर्शन है, जिसमें ज्ञान को पाँच प्रकारों में विभक्त करते हुए उनके स्वरूपों की विशिष्ट व्याख्या की गई है । पाँच ज्ञान हैं- मतिज्ञान ( आभिनिबोधिक ज्ञान), श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्याय ज्ञान और केवलज्ञान । इनमें से हम प्रायः मतिज्ञान से परिचित हैं, जो इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है । बुद्धि से होने वाला ज्ञान भी मतिज्ञान के अन्तर्गत ही समाविष्ट होता है । पूर्वजन्म का स्मरण, जिसे जातिस्मरण ज्ञान कहा जाता है वह भी मतिज्ञान का ही एक स्वरूप है । समस्त स्मृतिज्ञान, पहचानने रूप प्रत्यभिज्ञान, तर्कज्ञान एवं अनुमान से होने वाला ज्ञान भी मतिज्ञान ही है। यह ज्ञान जब सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है तो इसे सम्यग्ज्ञान की श्रेणी में रखा जाता है तथा जब यह इसके अभाव में होता है तो अज्ञान कहा जाता है। मतिज्ञान से श्रेष्ठ है श्रुतज्ञान। यह भी सम्यग्दर्शन के सद्भाव में सम्यग्ज्ञान तथा उसके अभाव में अज्ञान माना गया है। प्रत्येक संसारी जीव में मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान- ये दो ज्ञान ‘ज्ञान’ या ‘अज्ञान' के रूप में अवश्य पाए जाते हैं । श्रुतज्ञान ही ऐसा ज्ञान है, जो मुक्ति में सहायक है। इसकी तुलना केवलज्ञान से की गई है। केवलज्ञान प्रत्यक्ष है और श्रुतज्ञान परोक्ष, यही दोनों में भेद है। श्रुतज्ञान से ही मनुष्य को यह प्रकाश प्राप्त होता है कि उसे क्या छोड़ना है और क्या ग्रहण करना है तथा कैसे आत्म-शुद्धि की ओर आगे बढ़ना है। यह श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता