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________________ 98 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन पंचकारण समवाय की पृष्ठभूमि श्वेताश्वतरोपनिषद् में विभिन्न कारणवादों का उल्लेख हुआ है, यथा कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा, भूतानियोनिः पुरुष इति चिन्त्या। संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः।। -श्वेताश्वतरोपनिषद्, 1.2 काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पंचमहाभूत, योनि, पुरुष- इनका संयोग सृष्टि का कारण है, मात्र आत्मभाव से यह सृष्टि निर्मित नहीं हुई है, क्योंकि सुख-दुःख के कारण आत्मा भी स्वयं की ईश नहीं है। यहाँ पर यह संकेत प्राप्त होता है कि श्वेताश्वतर उपनिषद् में चेतन एवं अचेतन दोनों के संयोग को सृष्टि का कारण स्वीकार किया गया है। यह उपनिषद् उस समय प्रचलित सृष्टि की उत्पत्ति एवं उसके संचालन विषयक विभिन्न मतों को प्रस्तुत कर रहा है। कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, पंचभूतवाद, योनिवाद एवं पुरुषवाद इन सात मतों की ओर यहाँ संकेत मिल रहा है। उपनिषद् का यह मन्त्र विभिन्न वादों में समन्वय स्थापित कर रहा है। इसी प्रकार का समन्वय हमें सिद्धसेनसूरि (पांचवी शती) के 'सन्मतितर्क प्रकरण' की निम्नांकित गाथा में प्राप्त होता है। कालो सहाव णियई, पुव्वकयं पुरिसे कारणेगंता। मिच्छत्तं ते चेव, समासओ हॉति सम्मत्तं ॥ -सन्मतितर्क, 3.53 काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत (कर्म) एवं पुरुष (चेतन तत्त्व, आत्मा, जीव) इन्हें एकान्त कारण मानने पर ये मिथ्यात्व के द्योतक हैं तथा इनका सामासिक (सम्मिलित) रूप सम्यक्त्व कहलाता है। ___ सिद्धसेनसूरि (सिद्धसेन दिवाकर) यहाँ श्वेताश्वतरोपनिषद् में उक्त यदृच्छावाद, पंचभूतवाद एवं योनिवाद के मतों को अस्वीकृत करते हुए पूर्वकृत कर्म का नूतन उल्लेख कर रहे हैं। जैनदर्शन यदृच्छावाद अथवा आकस्मिकवाद को स्वीकार नहीं करता। वह कार्यकारण- व्यवस्था को अंगीकार करता है। पंचभूत नाम जैन दर्शन में प्रचलित नहीं है, इनका समावेश पृथ्वीकायिकादि जीवों एवं पुद्गलों में हो जाता है। जैन दर्शन द्रव्य की कारणता को अंगीकार करता है, जिसमें पुद्गल
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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