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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन में, आकाशास्तिकाय अवगाहन में, काल पर्यायपरिणमन में, जीव प्रयोगपरिणमनादि में तथा पुद्गल भी विविध कार्यों में निमित्त बनता है। जैन दर्शन के कारण-कार्य सिद्धान्त के अनेक आयाम हैं, जिन्हें संक्षेप में निम्नांकित बिन्दुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है(1) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के आधार पर कारण-कार्य का चिन्तन जैनदर्शन का अपना वैशिष्ट्य है।' प्रायः द्रव्य की कारणता से आशय है- धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पुद्गल की कारणता। किन्तु यहाँ आकाश का समावेश क्षेत्र में होने से तथा काल का पृथक् उल्लेख होने से द्रव्य की कारणता से आशय प्रमुखतः जीव एवं पुद्गल की कारणता है। धर्म एवं अधर्म द्रव्य तो उदासीन निमित्त के रूप में क्रमशः गति एवं स्थिति में कारण बनते हैं। प्रत्येक द्रव्य स्वपरिणमन में उपादान कारण होता है। पुद्गल एवं जीव द्रव्य अन्य जीव तथा पुद्गल के प्रति सक्रिय निमित्त कारण भी हो सकते हैं। इस प्रकार सभी द्रव्य स्वपरिणमन में अन्तरंग और अन्य द्रव्यों के परिणमन में बहिरंग कारण बनते हैं। क्षेत्र की कारणता से आशय है आकाश की कारणता। 'खित्तं खलु आगासं' कथन क्षेत्र को आकाश प्रतिपादित कर रहा है। सभी द्रव्यों को अवगाहन हेतु स्थान देने के कारण आकाश को ही क्षेत्र माना गया है। सभी द्रव्य आकाश में ही निवास करते हैं, इसलिए वह सबका क्षेत्र या निवास कहा जाता है। जो द्रव्य या पदार्थ जितना आकाशीय स्थान घेरता है, उसका उतना क्षेत्र होता है। काल की कारणता वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्व-अपरत्व स्वरूप कार्यों की दृष्टि से अंगीकार की गई है। काल के कारण ही धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य वर्तन करते हैं अर्थात बने रहते हैं, दूसरे शब्दों में कहें तो इनका अस्तित्व काल से ही सम्भव होता है। द्रव्यों के पर्याय-परिणमन में, उनकी परिस्पन्द रूप क्रिया में तथा ज्येष्ठत्व-कनिष्ठत्व में काल उदासीन निमित्त कारण होता है। ___ भाव की कारणता का सम्बन्ध विशेषतः जीव से है। जीव के पाँच भाव स्वीकार किये गये हैं - औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और पारिणामिका' छठा भाव इनके मिश्रण से सान्निपातिक कहलाता है।' औदयिक भाव से नरक आदि चार गतियाँ, क्रोध आदि चार कषाय, स्त्री आदि तीन वेद, मिथ्यादर्शन,
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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