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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (८) प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा। - प्रमत्तयोग (मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा के व्यापार) से प्राण का नाश करना वह हिंसा। (९)
असदभिधानमनृतम् । मिथ्या कथन वह अनृत ( असत्य ) है । असत् शब्द से यहाँ सद्भाव का प्रतिषेध अर्थान्तर और नहीं ये तीन ग्रहण करने । आत्मा नहीं, परलोक नहीं, इस तरह बोलना वह भूतनिहव ( मौजूदा वस्तु का निषेध करना ) और चांवल के दाणों जितना अथवा अंगूठे के पर्व जितना आत्मा है, ऐसा कहना वह अभूतोद्भावन ( असत् पदार्थ का प्रतिपादन करना), इन दो भेदों से सद्भाव प्रतिषेध है। गाय को भश्व और अश्व को गाय कहना वह अर्थान्तर. हिंसा कठोरता और पैशून्य वगेरा से मिले हुवे वचन वह गहो।
वह सत्य होने पर भी निन्दित होने से असत्य ही है। (१०)
अदत्तादानं स्तेयम् । अदत्त ( किसी की नहीं दी हुई ) चीज का ग्रहण वह चौरी कहलाती है।
मैथुनमब्रह्म। __ स्त्रीपुरुष का कर्म-मैथुन (स्त्रीसेवन ) वह अब्रह्म कहलाता है। (१२)
मूर्छा परिग्रहः । मूर्छा (राग से मम्मत से तर्जना रक्षण) की अभिलाषा रखना वह मूर्छा-परिग्रह है।
निःशल्यो व्रती। शल्य ( माया, नियाणा और मिथ्यात्व ) रहित हो। वह ब्रती कहलाता है।