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__ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् जो कर्मबंध वह प्रत्यय क्रिया अथवा कर्मबंध का कारणभूत अधिकरण भाश्रयी क्रिया वह प्रत्यय क्रिया। १४ अपने भाई, पुत्र, शिष्य, अश्व (घोडा) वगेरा की सब दिशाओं से देखने आये हुए लोगों से प्रशंसा (तारीफ) की जाने से जो खुश होना वह समन्तानुपात क्रिया अथवा घी, तेल वगेरा के बरतन उघाड़े रखने से उनमें प्रसादि जीव पड़ने से जो क्रिया लगे वह । १५ उपयोग रहित शून्यचित्त से करना वह अनाभोग क्रिया। १६ दूसरे के करने लायक काम, बहुत अभिमान से गुस्से होने के कारण अपने हाथ से करे वह हस्त क्रिया । १७ राजा आदि के हुकम से यन्त्र, शस्त्रादि घडाने वह नि:सर्ग क्रिया। १८ जीव अजीव का विदारण करना अथवा कोई मौजूद न हो उस वक्त उसके दूषण प्रकाश (जाहिर) कर उसकी मान प्रतिष्ठा का नाश करना वह विदारण क्रिया। १९ जीव या अजीव को दूसरे के द्वारा बुलाने वह आनयन क्रिया । २० वीतराग की कही हुई विधि में स्व-पर के हित के लिये प्रमाद वश होकर अनादर करना भनवकांक्षा क्रिया। २१ पृथ्वीकायादि जीवों का उपघात करने वाले खेती वगैरा का आरम्भ करना अथवा घास वगैरा छेदना (काटना) वह आरम्भ क्रिया । २२ धनधान्यादि उपार्जन (पैदा) करना और उसके रक्षण को मूर्छा (ममत्व) रखनी वह परिग्रह क्रिया । २३ कपट से दूसरे को ठगना-मोक्ष के साधन ज्ञानादि में कपट प्रवृत्ति वह माया क्रिया । २४ जिनवचन से विपरीत (उल्टा) श्रद्धान करना तथा विपरीत प्ररूपणा करनी वह मिथ्या दर्शन क्रिया २५ संयम के विघातकारी कषायादि का त्याग नहीं करना वह अप्रत्याख्यान क्रिया. नवतत्त्वादि प्रकरणादि के विषय में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन दो क्रियाओं की जगह प्रेम प्रत्यय (माया और लोभ के उदय से दूसरों को प्रेम उपजाना) और द्वेष प्रत्यय (क्रोध और मान के उदय से द्वेष उपजाना) ये दो क्रियायें हैं और बाकी की सब एकसा है.