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___ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् तेजो लेश्या, फिर तीन कल्प में पद्म लेश्या, और लांतक से सर्वार्थसिद्ध तक शुक्ल लेश्या होती है. (२४)
प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः। प्रैधेयक के पहले कल्प हैं ( इन्द्रादि भेदों वाले देवलोक है) यहाँ कोई शका करता है कि-क्यां सब देवता सम्यग् दृष्टि होते हैं कि जिससे वें तीर्थंकरों के जन्मादि वक्त आनन्द पाते है ? इसका उत्तर देते हैं कि सब देवता सम्यग दृष्टि नहीं होते, लेकिन जो सम्यग दृष्टि होते हैं वे. सद्धर्म के बहुमान से अत्यन्त आनन्द पाते हैं. और जन्मादि के महोत्सव में जाते हैं मिथ्यादृष्टि भी मनरंजन के लिये और इन्द्र की अनुवृत्ती (इच्छानुसार ) से जाते हैं. और आपस के मिलाप से हमेशा की प्रवृत्ति (आदत) होने से आनन्द पाते हैं लोकान्तिक देव तमाम विशुद्ध भाव वाले हैं. वे सद्धर्म के बहुमान से और संसार दुःख से पीडित (दुःखी) जीवों की दया के सबब से अहंतो के जन्मादि में ज्यादा आनन्द पाते हैं. और दिक्षा लेने का संकल्प करने वाले पूज्य तीर्थकरों के पास जाकर प्रसन्न चित्त से स्तुती करते हैं और तीर्थ प्रवर्ताने की विनती करते हैं। (२५) ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः ।
लोकान्तिक देव ब्रह्मलोक में रहने वाले हैं। (२६) सारस्वतादित्यबहन्यरुणगर्दतोयतुषिताव्यावाघमस्तः (अरिष्टाश्च)।
१ सारस्वत, २ आदित्य, ३ वन्हि, ४ अरुण, ५ गर्दतोय, ६ तुषित,.७ अव्याबाघ, ८ मरुत इन आठ भेद के लोकांतिक है (इशान कोन से लगाकर हर एक दिशा में एक एक सिल सिले वार है) भरिष्ट भी नवमां लोकान्तिक है.
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