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प्रथमोऽध्यायः
(१७) अर्थस्य । अर्थ (स्पर्शनादि विषय) का अवग्रह आदि मतिज्ञान के भेद होते हैं।
(१८) व्यञ्जनस्याऽवग्रहः । व्यंजन (द्रव्य) का तो अवग्रह ही होता है ।
इस तरह व्यंजन का और अर्थ का, दो प्रकार का अवप्रह जानना । इहादि अर्थ में ही होता है।
(१६) न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् । चक्षु और मन से व्यंजन ( द्रव्य ), का अवग्रह नहीं होता। लेकिन बाकी की चार इन्द्रियों से ही होता है।
इस तरह मतिज्ञान के दो, चार, अठाईस ( २८ भेद को बहु वगेरा छ से गुणा करने से ) एक सो अडसठ और. ( २८ को बारा भेद से गुणा करने से तीन सो छत्तीस भेद अनिश्रित मतिज्ञान के होते हैं।
(२०) श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादश भेदम् ।। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है वह दो तरह-अंगबाह्य, और अंगविष्ट, उनमें से पहले के अनेक और दूसरे के बारा भेद है।
सामायिक, चउविसत्था, वंदनक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, पच्चखाण, ( आवश्यक), दशकालिक, उत्तराध्ययन, दशा, (दशाश्रत स्कंध ) कल्प (बृहत् कल्प ), व्यवहार और निशीथसूत्र वगैरा महर्षियों के बनाये हुए सूत्र वे अंगबाह्य श्रत अनेक तरह के जानने । अंगप्रविष्ट श्रत के बारा भेद हैं वो इस तरह-(१) आचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) स्थानांग, (४) समवायांग, (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति, ( भगवती), (६) ज्ञातधर्म कथा, (७) उपासक