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આધુનિક વિદ્વાનોના અભિપ્રાયે ૪૦૯ जगत् बनाने की विकारचेष्टा होना कैसे संभव हो सकती है ?
"कर्मापेक्षः शरीरादि देहिनां घटयेद्यदि । नन्वेवमीश्वरो न स्यात्पारतव्यात्कुविन्दवत् "॥११॥
यदि सृष्टिकर्ता जीवों के किये हुए पूर्व कर्मों के अनुसार उनके शरीरादि बनाता है, तो कर्मोंकी परतंत्रता के कारण वह ईश्वर नहीं हो सकता है जैसे कि जलाहा । अभिप्राय यह है कि, जो स्वतंत्र है-समर्थ है उसी के लिये 'ईश्वर' संज्ञा ठीक हो सकती है, परतंत्र के लिये नहीं हो सकती। जुलाही यद्यपि कपड़े बनाता है, परन्तु परतंत्र है और असमर्थ है इसलिये उसे ईश्वर नहीं कह सकते ।
ईश्वर के प्रति श्री सम्पूर्णान्दजी के विचार ॥
निर्धन के धन और निर्बलके बल कोई भगवान हैं ऐसा कहा जाता है। यदि हैं तो उनसे किसी बलवान् या धनीको कोई आशंका नहीं है। वह उनके दरबार में रिश्वत पहुँचाने की युक्तियाँ जानता है। पर उनका नाम लेनेसे दुर्बल और निर्धनका क्रोध शान्त हो जाता है । जो हाथ सतानेवालों के विरुद्ध उठते वह भगवान के सामने बँध जाते है। आँखोंकी क्रोधाग्नि आँसू बनकर ढल जाती है। वह अपनी कमर तोड़ कर भगवान् का आश्रय लेता है। इसका परिणाम कुछ भी नहीं होता। उसके आतं हृदय से उमँड़ी हुई कम्पित स्वरलहरी आकाशमंडल को चीर कर भगवान के सूने सिंहासन से टकराती है। टकराती है और ज्योंकी त्यों लौटती है । कबीर साहव के शब्दों में 'वहाँ कुछ है नहीं, अरज अंधा करै, कठिन डंडौत नहिं टरत टारी'। आज हजारों कुलवधुओं का सतीत्व