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आचार का अर्थ
आचार का शाब्दिक अर्थ है-आचरण। आचर्यते इति आचारः, जिसका आचरण किया जाए, वही आचार है। आचार शब्द आङ् उपसर्ग पूर्वक चर् धातु से घञ् प्रत्यय लगाने पर बना है। 'चर' धातु का प्रयोग मुख्य रूप से गति-चलना अर्थ में किया जाता है। हमारे मन में शुभ विचारों का चलना विचार है, शुभ वाणी का प्रयोग उच्चार है और शुभ विचारों को जीवन में उतारना आचार है। अच्छे आचार से ही अच्छे विचार की उत्पत्ति होती है और अच्छे विचार से ही आचार अच्छा बनता है। अतः आचार और विचार परस्पर सापेक्ष हैं। आचार का स्वरूप
शब्दार्थ की दृष्टि से देखें तो आचार शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे- नीति, धर्म, कर्त्तव्य, नैतिकता आदि। जीवन-निर्वाह के लिए जिन बातों, नियमों की पालना की जाती है, वह आचार है। तत्त्व दर्शन को समंन रूप से समझने और व्यवहार में उतारने की प्रक्रिया आचार है। इसी से जीवनशैली परिष्कृत और परिशुद्ध होती है। समाज में प्रतिष्ठा का मूल्यांकन भी व्यक्ति का आचार और व्यवहार बनता है। इसीलिए कहा गया-आचार समाज का दर्पण है। सम्यक्. आचार के पालन से न केवल सामाजिक उन्नति अपितु आध्यात्मिक उन्नति भी होती है। अतः आचार ही मोक्ष-प्राप्ति का साक्षात् कारण है। जैन आचार का केन्द्र बिन्दु है-आत्मा। आत्मा के उत्थान के लिए जो भी आचरण निर्दिष्ट हैं, वही जैन आचार का स्वरूप है।
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। यह संबंध कब तक बना रहेगा, निश्चित नहीं है। कर्म के कारण ही आत्मा को विविध योनियों में परिभ्रमण करना पड़ता है। कर्म से ही पुनर्जन्म होता है। जन्म-मरण और कर्म-परम्परा को रोकने के