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आत्मा कथंचित् सर्वव्यापी है__जैन दर्शन में आत्मा को. कथंचित् सर्वव्यापी माना गया है।
आत्मा ज्ञान स्वरूप होने से ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानने से ज्ञेय प्रमाण है तथा ज्ञेय समस्त लोकालोक है। इसलिए ज्ञान सर्वगत है। ज्ञान के सर्वगत (व्यापक) सिद्ध होने से आत्मा की सर्वव्यापकता सिद्ध होती है। प्रवचनसार में कहा है
. आदा णाण पमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिटुं। ___णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं।।
कर्ममल रहित केवली भगवान अपने अव्याबाध केवलज्ञान से लोक और अलोक को जानते हैं। इसलिए वे सर्वज्ञ हैं। केवली समुद्घात की अपेक्षा आत्मा का आकार ..
सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार जीवकाण्ड में समुद्घात के स्वरूप विवेचन में कहा है कि मूल शरीर को त्यागे बिना उत्तर शरीर अर्थात् तैजस और कार्मण शरीर के साथ आत्म-प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना समुद्घात कहलाता है। समुद्घात के सात भेदों में केवली समुद्घात भी एक भेद है। केवली समुद्घात के समय आत्म-प्रदेश सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होते हैं।
इस प्रकार केवली समुद्घात की अपेक्षा आत्मा व्यापक भी है लेकिन वह कभी-कभी होता है इसलिए आत्मा को कथंचित् व्यापक मानना ही संभव है, सर्वथा नहीं।
जैन दार्शनिकों ने शरीर परिमाण और व्यापकता का समन्वय अनेकान्तात्मकता की दृष्टि से किया है। यहां केवलज्ञान की दृष्टि से आत्मा को व्यापक तथा आत्म-प्रदेशों की दृष्टि से अव्यापक माना गया है, जैसा कि कहा गया है-केवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे ज्ञानापेक्षया व्यवहार नयेन लोकालोक व्यापकः न च प्रदेशापेक्षया।