________________
47.
प्रति होने वाली आसक्ति को कम कर आत्मा के सच्चे स्वरूप को पाने के लिए उस ओर उन्मुख होता है तब वह अन्तरात्मा कहलाता
3. परमात्मा-जब व्यक्ति अपनी साधना के द्वारा समस्त कर्मों का नाश कर आत्म-स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है, तो उसे परमात्मा कहते हैं।
इस प्रकार जैन दर्शन में जहाँ आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन किया गया है, वहीं संसारी आत्मा के भेद-प्रभेदों का भी सूक्ष्म और मनोवैज्ञानिक विवेचन किया गया है। जैन दर्शन के अनुसार हर आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता है।
3. आत्मा की सिद्धि जैन दर्शन के अनुसार आत्मा अमूर्त है अतः वह इन्द्रियातीत पदार्थ है। आचारांग में आत्मा के स्वरूप को बताते हुए लिखा है-'सव्वे सरा नियटुंति, तक्का जत्थ न विज्जइ, मइ तत्थ न गाहिया'-आत्मा का स्वरूप शब्दातीत एवं तर्कातीत है। वह बुद्धि का विषय भी नहीं बन सकती। वह न दीर्घ है, न इस्व। न त्रिकोण है, न चतुष्कोण। न कृष्ण है, न शुक्ल। न स्त्री है और न पुरुष। आत्मा को किसी भी उपमा से नहीं बताया जा सकता, वह अरूपी सत्ता है। वह इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य नहीं है। वह स्वानुभव का विषय है। अनुभव स्वसंवेद्य होता है, किंतु दूसरों को समझाने के लिए परोक्ष ज्ञान भी उपयोगी बनता है। इसलिए सूक्ष्म या स्थूल, मूर्त या अमूर्त किसी भी द्रव्य के अस्तित्व या नास्तित्व का समर्थन तर्क के द्वारा करने की परम्परा प्रचलित रही है। आत्मा के स्वसंवेद्य होने पर भी तर्क, प्रमाण आदि के द्वारा उसका त्रैकालिक अस्तित्व सिद्ध करने का प्रयास दार्शनिकों ने किया है। जब-जब अनात्मवादी दार्शनिकों ने आत्मा को नकारते हुए उसके नास्तित्व की सिद्धि के लिए हेतु प्रस्तत