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गुण-द्रव्य के सहभावी धर्म को गुण कहते हैं। पर्याय-द्रव्य के क्रमभावी धर्म को पर्याय कहते हैं।
इस प्रकार संज्ञा, संख्या और लक्षण के आधार पर तीनों में परस्पर भिन्नता है। द्रव्य-गुण-पर्याय को वस्तुजगत् में अलग-अलग नहीं किया जा सकता अतः अभिन्नता है तथा तीनों को बुद्धि के स्तर पर अलग-अलग समझा जा सकता है अतः इनमें भिन्नता भी है। इस प्रकार जैन दर्शन में द्रव्य-गुण-पर्याय इन तीनों में परस्पर भेदाभेद को स्वीकार किया गया है।
3. षड् द्रव्य · दर्शन जगत् में तत्त्वमीमांसा का अपना विशेष स्थान है। जैन तत्त्व मीमांसा में द्रव्य के स्वरूप का विशद विवेचन हुआ है। जैन दर्शन में मुख्य दो द्रव्य माने गये हैं-जीव और अजीव। विश्व-व्यवस्था के सन्दर्भ में जैन दर्शन में पंचास्तिकाय और षड् द्रव्य की चर्चा उपलब्ध होती है, जो कि इन दो द्रव्यों का ही विस्तार है। छः द्रव्य निम्नलिखित हैं
1. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. आकाशास्तिकाय, . 4. काल, 5. पुद्गलास्तिकाय, 6. जीवास्तिकाय।.
इन छः द्रव्यों में काल को छोड़कर पांच अस्तिकाय हैं। काल अस्तिकाय नहीं है। षड्द्रव्यों के विवेचन से पूर्व अस्तिकाय को समझना आवश्यक है। अस्तिकाय में दो शब्द हैं-अस्ति और काय। अस्ति शब्द का अर्थ है-प्रदेश और काय शब्द का अर्थ है-समूह। प्रदेश समूह को अस्तिकाय कहते हैं। प्रदेश से तात्पर्य वस्तु के एक अंश से है। जिस प्रकार एक वस्त्र अनेक तंतुओं से बनता है, उनमें प्रत्येक तंतु को एक प्रदेश माना जा सकता है। तंतुओं का समूह वस्त्र