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होती है। नाड़ीतंत्रीय असंतुलन के कारण हिंसा करना, मारना व्यक्ति के आनन्द और मनोरंजन का विषय बन जाता है।
7. कर्म का विपाक
बहुत बार बाहर में हिंसा का कोई दृश्य कारण नहीं होता। व्यक्ति शांति से बैठा हुआ है, किन्तु कर्म का संस्कार अचानक इतना प्रबल विपाक (उदय) में आ जाता है कि व्यक्ति बिना कारण, बिना परिस्थिति हिंसा करने के लिए मजबूर हो जाता है।
हिंसा के भेद
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हिंसा की उत्पत्ति का मूल कारण है. - कषाय । ये कषाय चार हैं— क्रोध, मान, माया और लोभ । इन्हीं कषायों के कारण सरंभ, समारंभ तथा आरम्भ हिंसा होती है। सरंभ, समारंभ और आरम्भ के भेद से हिंसा के तीन प्रकार हैं
1. सरंभ – हिंसा करने का मन में जो विचार आता है, उसे सरंभ कहते हैं।
2. समारंभ – हिंसा करने के लिए जो उपक्रम किया जाता है, उसे समारंभ कहते हैं।
3. आरम्भ
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- प्राणघात तक जो क्रियाएँ की जाती हैं, उसे आरम्भ कहते हैं।
काय
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इस प्रकार चार कषाय को सरंभ आदि तीन से गुणा करने पर हिंसा के बारह प्रकार हो जाते हैं। जैन दर्शन में हिंसा मन, वचन और काया से होती है अतः बारह को तीन से पुनः गुणा करने पर हिंसा के छत्तीस भेद हो जाते हैं। मन, वचन, - इन तीनों योग के भी तीन-तीन भेद होते हैं। हिंसा स्वयं करवाना तथा हिंसा करने वाले का अनुमोदन करना. - ये तीन करण कहलाते हैं। इस प्रकार हिंसा के छत्तीस भेद को इन तीन करण से गुणा करने पर 108 भेद माने जाते हैं।
करना, अन्य व्यक्ति से
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