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हिंसा से विरत होता है अत: इसका एक नाम स्थूल प्राणातिपात-विरमण भी है। स्थूल हिंसा का तात्पर्य द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि स्थूल जीवों की हिंसा से है। जैन दर्शन के अनुसार जीव दो प्रकार के होते है-सूक्ष्म और स्थूल। अपने जीवन को चलाने के लिए श्रावक को सूक्ष्म जीवों पृथ्वी, पानी, वनस्पति आदि की हिंसा करनी पड़ती है किन्तु इनकी भी वह अनावश्यक हिंसा नहीं करता है।
श्रमण मन, वचन और काया से किसी भी प्राणी की, चाहे वह त्रस हो या स्थावर हो, न स्वयं हिंसा करता है, न दूसरों से करवाता है और न ही करने वालों का समर्थन करता है। इस प्रकार श्रमण, हिंसा का तीन योग (मन, वचन, काया) और तीन करण (करना, करवाना और समर्थन करना) से त्याग करता है। श्रावक इस प्रकार हिंसा का पूर्ण रूप से त्याग नहीं कर सकता। वह केवल त्रस प्राणियों की हिंसा से विरत होता है। उसकी यह विरति तीन योग और दो करण से होती है। वह निरपराध प्राणियों को मन, वचन, काया से न स्वयं मारता है और न दूसरों से मरवाता है। किन्तु परिस्थिति विशेष में स्थूल हिंसा के समर्थन की उसको छूट होती है। . जैन दर्शन में हिंसा के चार प्रकार माने गए हैं—संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी। इनमें से श्रावक संकल्पी हिंसा का त्यागी होता है। वह संकल्पपूर्वक किसी भी त्रसप्राणी की हिंसा नहीं करता। अपने व्यवसाय आदि में तथा दैनिक कार्यों में भी कभी-कभी त्रस जीवों की हिंसा हो जाती है किन्तु वह संकल्पपूर्वक उनकी हिंसा नहीं करता अतः हिंसा हो जाने पर भी उसका व्रत भंग नहीं होता
2. सत्य अणुव्रत
श्रावक का दूसरा व्रत सत्य अणुव्रत है। श्रावक पूर्ण सत्य बोलने का व्रत नहीं ले सकता क्योंकि उसे कभी-कभी परिस्थितिवश असत्य-संभाषण करना पड़ता है। परन्तु यदि वह सावधानी रखे तो