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आरंभ-दुष्ट वचन बोल देना वाचिक आरंभ है। ...
इस प्रकार वाचिक सरंभ, समारंभ और आरंभ से वचन को हटा लेना वचनगुप्ति है। 3. कायगुप्ति - शरीर की प्रवृत्ति का सर्वथा निग्रह करना अथवा शरीर की असंयत प्रवृत्ति का निग्रह करना कायगुप्ति है। सरंभ, समारंभ और आरंभ में प्रवृत्त हुए शरीर को रोकना कायगुप्ति है।
सरंभ-प्रहार करने की दृष्टि से लाठी, मुष्टि आदि उठाना कायिक सरंभ है।
समारंभ-दूसरों के लिए पीड़ाकारक मुष्टि आदि का प्रयोग करना कायिक समारंभ है।
आरंभ-प्राणी वध में शरीर की प्रवृत्ति करना कायिक आरम्भ है।
इस प्रकार कायिक सरंभ, समारंभ और आरम्भ से शरीर को हटा लेना कायगुप्ति है। __ जैन दर्शन के अनुसार गुप्ति निवृत्ति प्रधान तथा समिति प्रवृत्ति प्रधान होती है। फिर भी प्रवृत्ति और निवृत्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अतः प्रवृत्ति में निवृत्ति और निवृत्ति में प्रवृत्ति का अंश रहता है। अशुभ भावों से निवृत्ति का अर्थ शुभ भावों में प्रवृत्ति करना है और शुभ भावों में प्रवृत्ति का अर्थ अशुभ भावों से निवृत्ति होता है। पूर्ण निवृत्ति की अवस्था चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान में प्राप्त होती है। गुप्ति के लाभ
गणधर गौतम ने भगवान महावीर से पूछा-भंते! गुप्ति की . साधना से जीव को क्या प्राप्त होता है? भगवान ने कहा-गौतम!