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हैं, ममत्व या मूर्च्छाभाव से नहीं । श्रमण के लिए धर्मोपकरण के अतिरिक्त वस्तुमात्र का संग्रह सर्वथा वर्जित है। मूर्च्छा का जहां तक प्रश्न है, वह न धर्मोपकरण के प्रति होनी चाहिए और न किसी अन्य वस्तु पर। शास्त्रों में तो यहां तक कहा गया है- 'अवि अप्पणो वि देहम्मि नायरंति ममाइयं' अर्थात् मुनि अपने शरीर पर भी ममत्व न करे, इसी में अपरिग्रह महाव्रत की पूर्णता है। ये पांचों व्रत मुनि के लिए तीन करण (करना, करवाना, अनुमोदन करना) और तीन योग ( मन, वचन और शरीर ) से अनिवार्य रूप से पालनीय हैं, समाचरणीय हैं।
6. रात्रिभोजनविस्मण व्रतं
इन पांच महाव्रतों के साथ-साथ मुनि के लिए रात्रिभोजन का भी निषेध है। दसवैकालिक सूत्र में इसे छठा महाव्रत कहा गया है। मुनि सम्पूर्ण रूप से रात्रिभोजन का त्याग करता है। रात्रिभोजन का निषेध अहिंसा महाव्रत की रक्षा एवं संयम की सुरक्षा दोनों ही दृष्टि से आवश्यक माना गया है। दसवैकालिक सूत्र में कहा गया - मुनि सूर्य अस्त हो जाने के बाद रात्रि में सभी प्रकार के आहार आदि के भोग की इच्छा मन से भी न करे। अहिंसा व्रत की साधना के लिए जहां रात्रिभोजन का त्याग अनिवार्य माना गया है, वहीं स्वास्थ्य की दृष्टि से भी रात्रिभोजन का त्याग आवश्यक है।
अष्ट प्रवचनमाता
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महाव्रतों की सुरक्षा और शुद्धता के लिए समिति और गुप्ति का विधान है। समिति और गुप्ति – दोनों का सम्मिलित नाम उत्तराध्ययन में 'प्रवचनमाता' दिया गया है। सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र इस रत्नत्रयी को प्रवचन कहा जाता है। उसकी रक्षा के लिए पांच समितियां और तीन गुप्तियां इन्हें प्रवचन माता कहा जाता है। जिस प्रकार ही नहीं देती, उनका पालन-पोषण करती है, रोग आदि होने पर
माता - स्थानीय हैं अतः
माता बच्चे को जन्म