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भी वस्तु की आवश्यकता होने पर उसके स्वामी से पूछकर, उसके देने पर ही ग्रहण करना। जिस प्रकार श्रमण अदत्त वस्तु स्वयं ग्रहण नहीं करता, उसी प्रकार दूसरों से भी ग्रहण नहीं करवाता है और करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करता। वह तीन करण और तीन योग से चोरी न करने का जीवन भर के लिए संकल्प स्वीकार करता
स्थानांग सूत्र की टीका में चार प्रकार के अदत्त बताये गए हैं-1. स्वामी-अदत्त, 2. जीव-अदत्त, 3. तीर्थंकर-अदत्त और 4. गुरू-अदत्त।
1. स्वामी-अदत्त-जिस वस्तु का जो स्वामी है उसकी अनुमति के बिना वह वस्तु ग्रहण करना स्वामी-अदत्त है।
2. जीव-अदत्त-स्वामी के द्वारा अनुमति दिये जाने पर भी स्वयं जीव की अनुमति के बिना उसे ग्रहण करना जीव अदत्त है, जैसे-फल-फूलों को ग्रहण करना, जल को ग्रहण करना आदि। फल-फूलों के जीवों ने अपने प्राणों के हनन करने की अनुमति नहीं दी है।
3. तीर्थकर-अदत्त-तीर्थंकर भगवान ने जिस कार्य को करने की अनुमति नहीं दी है, उसका आचरण करना या उसको ग्रहण करना तीर्थंकर-अदत्त है।
4. गुरू-अदत्त-तीर्थंकर भगवान द्वारा अनुमति होने पर भी यदि गुरू की आज्ञा नहीं है तो उसे ग्रहण करना गुरू-अदत्त है।
इस प्रकार अचौर्य महाव्रत में बिना अनुमति अपने आप कुछ भी ग्रहण नहीं किया जाता है। पूर्ण प्रामाणिकता का नाम अचौर्य महाव्रत है। 4. ब्रह्मचर्य महाव्रत
श्रमण का चौथा महाव्रत है-ब्रह्मचर्य महाव्रत। ब्रह्मचर्य में दो