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3. आर्जव
क्षमा और मुक्ति की भांति आर्जव भी आत्मा का स्वभाव है। 'ऋजोर्भावः आर्जवम्' ऋजुता अर्थात् सरलता का भाव ही आर्जव है। मन, वचन और काय से कपटपूर्ण भावों का सर्वथा अभाव तथा ऋजु (सरल) भावों का सद्भाव आर्जव धर्म है।
माया के कारण व्यक्ति में जटिलता, कुटिलता आती है। मायावी व्यक्ति सोचता कुछ है, बोलता कुछ है और करता कुछ है। उसके मन, वचन, काया में एकरूपता नहीं रहती। उसका व्यवहार वक्र (टेढ़ा ) होता है। सरलता और वक्रता को लेकर ठाणं सूत्र में चार विकल्प बनाये गए हैं
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कुछ व्यक्ति बाहर से सरल पर भीतर से वक्र होते हैं। कुछ व्यक्ति बाहर से वक्र पर भीतर से सरल होते हैं। कुछ व्यक्ति बाहर से वक्र और भीतर से भी वक्र होते हैं। कुछ व्यक्ति बाहर से सरल और भीतर से भी सरल होते हैं।
इनमें चौथा विकल्प ही अनुकरणीय है। हमें भीतर और बाहर दोनों से सरल बनने का प्रयास करना चाहिए। उत्तम आर्जव की प्राप्ति के लिए चार बातें अनिवार्य हैं- काया की ऋजुता, भाषा की ऋजुता, भावों की ऋजुता और त्रिविध योगों की अविसंवादिता ( एकरूपता) ।
ऋजुता ( सरलता) से व्यक्ति माया पर विजय प्राप्त कर आर्जव धर्म को प्राप्त करता है। आर्जव धर्म को प्राप्त करने वाला व्यक्ति अनाचार का सेवन करके उसे छुपाता नहीं है और न ही अस्वीकार करता है, क्योंकि वह मानता है कि गलती होना इन्सान का स्वाभाविक लक्षण है। गलती करके उसे स्वीकार करना आर्जव धर्म है। इस प्रकार आर्जव धर्म की साधना पवित्रता की साधना है।