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1. सत् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त है। 2. सत् गुण-पर्याय युक्त है।
सत् की इन दोनों अवधारणाओं में मात्र शब्द भेद है, तात्पर्यार्थ में कोई भेद नहीं है। उत्पाद-व्यय के स्थान पर गुण और पर्याय तथा ध्रौव्य के स्थान पर द्रव्य शब्द का प्रयोग हुआ है। उत्पाद और व्यय परिवर्तन के अर्थात् अनित्यता के सूचक हैं और ध्रौव्य नित्यता का सूचक शब्द है। उसी प्रकार पर्याय अनित्यता का तथा द्रव्य नित्यता का सूचक है।
जैन दर्शन के अनुसार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-ये तीनों बातें युगपत्-एक साथ जिसमें घटित होती हैं, वही सत् होता है। परिवर्तनशीलता और नित्यता-ये दोनों साथ रहकर ही सत् (पदार्थ) को पूर्णता देते हैं। केवल उत्पाद, केवल व्यय या केवल ध्रौव्य सत् का लक्षण नहीं बन सकता।
प्रश्न हो सकता है कि एक ही पदार्थ में एक साथ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की संगति कैसे हो सकती है? क्योंकि ये तीनों विरोधी प्रतीत होते हैं। जहाँ उत्पाद और व्यय है, वहाँ स्थायित्व कैसे हो सकता है और जहाँ स्थायित्व है, वहाँ उत्पाद तथा व्यय कैसे घटित हो सकता है?
____ इसका समाधान यही है कि ऊपर-ऊपर से देखने पर यहाँ विसंगति की प्रतीति होती है, पर सच्चाई यह है कि इनके बिना किसी पदार्थ की संगति हो ही नहीं सकती। उदाहरण के लिए सोने से कंगन, अंगूठी आदि अनेक आभूषण बनाए जाते हैं। सोने के कंगन को तोड़कर जब अंगूठी बनाई जाती है तब अंगूठी का उत्पाद और कंगन का व्यय हमें प्रत्यक्ष नजर आता है और उसी समय सोना, जो कि ध्रौव्य है, वह भी नजर आता है, क्योंकि कंगन, अंगूठी आदि अनेक पर्यायों से गुजरता हुआ भी सोना द्रव्य सदा स्थिर रहता है,