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नाम अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है। यहाँ से आध्यात्मिक विकास का प्रारम्भ होता है। आत्मा और शरीर की भिन्नता का बोध होता है। मोक्ष की ओर अग्रसर होने की चेष्टा शुरू हो जाती है। 5. देशविरति गुणस्थान . इस पंचम गुणस्थान में व्यक्ति की आत्मिक शक्ति विकसित होती है। वह पूर्णरूप से व्रतों की आराधना नहीं कर सकता किन्तु
आंशिक रूप से व्रतों को स्वीकार करता है, जैसे- वह पूर्ण अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि महाव्रत को स्वीकार नहीं कर सकता किन्तु छोटी-छोटी हिंसा का त्याग कर अहिंसा अणुव्रत को स्वीकार करता है। बड़ा झूठ बोलने और चोरी करने का त्याग कर सत्य अणुव्रत, अचौर्य अणुव्रत आदि को स्वीकार करता है। आंशिक रूप से व्रतों को स्वीकार करने वालों को जैन आचारशास्त्र में उपासक या श्रावक कहा जाता है। इसमें अहिंसा, सत्य आदि व्रतों का आचरण प्रारम्भ हो जाता है। 6. प्रमत्त-संयत गुणस्थान
इसका दूसरा नाम सर्वविरति गुणस्थान भी है। इसमें साधक आंशिक व्रत से पूर्ण व्रत की ओर जाता है। उसका व्रत अणुव्रत न कहलाकर महाव्रत कहलाता है और वह श्रावक न कहलाकर श्रमण-साधू कहलाता है। इसमें अहिंसा, सत्य आदि के आचरण का पूर्ण संकल्प होता है। पूर्ण संयमी जीवन को स्वीकार करने के बाद भी उसमें प्रमाद रहता है, जिसके कारण वह कभी-कभी दोषों का भी सेवन कर लेता है अतः इस गुणस्थान का नाम प्रमत्त-संयत गुणस्थान रखा गया है। साधक अपनी आध्यात्मिक परिस्थिति के अनुसार इस गुणस्थान से ऊपर भी उठ सकता है और नीचे भी गिर सकता है। यह गुणस्थान श्रमण में पाया जाता है।