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प्रतिदिन दस बार क्रोध करते हैं तो यह संकल्प करना आज पांच या तीन बार से ज्यादा क्रोध नहीं करूंगा। 3. भिक्षाचरी
___ बाह्य तप का तीसरा भेद है-भिक्षाचरी। भिक्षाचरी का तात्पर्य है विविध प्रकार के अभिग्रह-संकल्प करके आहार की गवेषणा करना। जैसे भिक्षा के लिए जाते समय यह संकल्प करना कि आज भिक्षा में यदि अमुक पदार्थ उपलब्ध हुआ, तभी भिक्षा लूंगा अन्यथा भिक्षा ग्रहण नहीं करूंगा। जिस प्रकार भिक्षा के लिए जाते समय भगवान महावीर ने तेरह अभिग्रह-संकल्प किए। जब तक वे तेरह संकल्प एक साथ पूरे नहीं हुए तब तक उन्होंने भिक्षा ग्रहण नहीं की। भिक्षाचरी का दूसरा नाम वृत्तिसंख्यान तप भी है। 4. रस-परित्याग
__ आहार का त्याग करना ही तप नहीं अपितु खाते-पीते भी तप किया जा सकता है। रस का अर्थ है-प्रीति बढ़ाने वाला। 'रसं प्रीतिविवर्धनम्' जिससे भोजन में प्रीति उत्पन्न हो उसे रस कहते हैं। खाद्य पदार्थों में रसीले, पौष्टिक एवं चटपटे पदार्थों का त्याग करना रसपरित्याग है। इसमें मुख्य रूप से दूध, दही, घी, तेल, शक्कर, कढ़ाई विगय-मिठाई, नमकीन आदि इन छ: विगय का त्याग किया जाता है क्योंकि घी, दूध, दही आदि पौष्टिक आहार का अधिक मात्रा में सेवन करने पर ये मन में विकार पैदा करते हैं। 5. कायक्लेश
बाह्य तप के प्रथम चार भेद आहार से संबंधित हैं और पांचवां भेद शरीर से संबंधित है। कायक्लेश का अर्थ शरीर को कष्ट देना नहीं है किन्तु भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि से उत्पन्न शारीरिक कष्ट को समभाव से सहन करना है। अनेक प्रकार के आसनों से शरीर को साधने का नाम कायक्लेश है। आसनों के अभ्यास से व्यक्ति
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