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हैं। वे हैं- 1. सम्यक्त्व संवर, 2. व्रत संवर, 3. अप्रमाद संवर, 4. अकषाय संवर, 5. अयोग संवर।
1. सम्यक्त्व संवर-यथार्थ तत्त्व श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व है। जीव-अजीव आदि नौ तत्त्वों के बारे में सही श्रद्धा का होना और विपरीत श्रद्धा का त्याग करना सम्यक्त्व संवर है।
2. व्रत संवर-यह अव्रत का प्रतिपक्षी तत्त्व है। इसके दो रूप हैं-देशव्रत और सर्वव्रत। पापकारी वृत्तियों का आंशिक त्याग देशव्रत संयम है और इनका जीवन भर के लिए सम्पूर्ण रूप से त्याग सर्वव्रत संवर है। ... 3. अप्रमाद संवर-अध्यात्म के प्रति होने वाली सम्पूर्ण जागरूकता का नाम अप्रमाद संवर है।
4. अकषाय संवर-क्रोध आदि कषाय को सर्वथा क्षीण कर देना अकषाय संवर है।
5. अयोग संवर-योग का अर्थ है-प्रवृत्ति। प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है-शुभ और अशुभ। अशुभ प्रवृत्ति का सम्पूर्ण निरोध करना व्रत संवर है और अशुभ के साथ शुभ प्रवृत्ति का भी सम्पूर्ण निरोध करना अयोग संवर है। अयोग संवर की स्थिति में पहुंचने के तत्काल बाद जीव मुक्त हो जाता है। 8. निर्जरा
संवर के द्वारा कर्मों का आगमन रुक जाता है अर्थात् नये कर्मों का बंधन नहीं होता है, किन्तु पूर्व संचित कर्मों की सत्ता बनी रहती है। पूर्व संचित कर्मों का क्षय तपस्या के द्वारा होता है। तपस्या के द्वारा कर्मों का क्षय होने पर आत्मा की जो उज्ज्वलता होती है, वह निर्जरा है। इस परिभाषा के अनुसार तपस्या. निर्जरा का कारण है। कारण में कार्य का उपचार करने से तपस्या को भी निर्जरा कहा जाता है। कर्म का पूर्ण विलय मोक्ष है तथा आंशिक विलय निर्जरा