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हो । उसको, उपदेश द्वारा जो धर्मके रास्ते पर लाना है, सो, उसे, भाव प्राण-भाव जीवन ही देना है, और यही उपकार, सबसे बढ़ कर है । आत्म्यकी वास्तविक लक्ष्मीका, अथवा यो कहिये ! आमाके स्वाभाविक स्वरूपका, जो घात होना है, सो, आत्माके वास्तविक जीवनका सत्तानाश होना क्या नहीं है ? बराबर है, इस लिये, लोगोंके जीवनका सुधार हो, धर्मके आदर तरफ लोगोंके मनकी प्रवृत्ति हो, इसी उद्देशसे, विद्वान्महाशय लोग, धार्मिक. उपकार करनेमें कटीबद्ध होते हैं।
• प्रजाको, धर्मको सडक पर पहुँचानेके लिये, मुख्यत्वेन दो साधन हैं-वक्तृता और लेखनी । इनमें भी, धर्मके फैलावका विशेष साधन, लेखनी मालूम पडती है, बेशक ! प्रखर उपदेशकी ध्वनिका प्रभाव, श्रोताओंके हृदयों पर, जितना असर डालता है, उतना अ-- सर, पुस्तक वाचनसे, नहीं हो, सकता, तो भी, धर्मके प्रवाहको,, अस्खलित बहानेका, धर्मकी नींवको, मजबूत रखनेका, प्रधान साधन, सिवाय लेखनी (कलम), कौन किसे कहेगा है। उपदेशके, पुद्गलात्मक वर्ण, श्रवणमात्रके अनंतर, पलायन कर जाते हैं, पर यही उपदेश, अगर पुस्तकमें आरूढ कर दिया हो, तो, भविष्यमें उससे, कितने जीवोंको लाभ पहुँचेगा, यह कहनेकी कोई जरूरत नहीं । वक्तृता, सुनने वालों ही को अल्प समय का बहुत समया तक फायदा पहुँचाती है, मगर कलमकी रचना, अपनी आयुतक, अनियमित-बहुतेरे सज्जनोंको, फायदा पहुँचाती है, इसमें क्या सन्देह है।
लेखक महाशयका, पुस्तक लिखने प्रयोजन, दो प्रकारका है-स्वार्थ, और परार्थ । वे ही दो प्रयोजन, वाचक वर्गके लिये भी समझने चाहिये । लेखकका साक्षात् स्वार्थ-आत्म प्रयोजन, तत्त्वका प्रतिपादन करना है, अर्थात् तत्त्वज्ञान दे के वाचक जीवों