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शिक्षा-द्वार,
जिन्हों ने सब कर्म, उग्रतप से विध्वंस में ला दिये जिन्हों ने निज आत्म-वैभव जगा तीनों जगत् पा लिये। जिन्हों के चरणारविन्द युग को देवेन्द्र भी पूजते वे तीर्थंकर - विश्वनाथ, हम को आनन्द देते रहें ॥ १ ॥ और
जिन्हों के पुरुषार्थ - बुद्धिबल से वाराणसी में बडी श्रीविद्यालय, पुस्तकालय, तथा, शाला पशु-माणि की । एवं श्री मरुदेश - जोधपुर में श्री जैनसाहित्य की पैदा की, पहिली महा परिषदा, उन्हें नमूँ साञ्जलि ॥ २ ॥
यह तो प्रसिद्ध ही बात है कि विना प्रयोजन, कोई शख्स प्रवृत्ति नहीं करता, विशेषतया बुद्धिमानों की प्रवृत्तिमें तो कुछ न कुछ प्रयोजन - उद्देश अवश्य रहता है; वह प्रयोजन दो प्रकारका है - स्वार्थ, और परार्थ । कितने ही क्या, बहुत लोग, ऐसे देखे जाते हैं कि 'पेट भरा भण्डार भरा' मन्त्रके उपासक बने हुए, सिर्फ अपने मतलबमें, गोतें मारा करते हैं, मगर यह अधम पुरुषोंका काम है, अपना पेट तो कुत्ते गदहे तक भी भर लेते हैं, पर परोपकार करना, यही मानव जीवनका सार है,