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न्याय शिक्षा ।
तीर्थकरदेवोंके ऊपर समझना चाहिये ।
- इस प्रकार सान्यवहारिक और पारमार्थिक, ये प्रसक्षके दो भेद बता दिये । अब दूसरे परोक्ष-प्रमाणके अपर आना चाहिये
प्रत्यक्ष प्रमाणसे विपरीत रूपवाला (उलटा) सम्यनज्ञान, परोक्ष प्रमाण कहाता है। यह परोष प्रमाण, पांच भेदोंमें विभक्त है।
तथाहि
स्मरण १ प्रत्यभिज्ञान २ तर्क ३ अनुमान ४ और आगम ५।
जिस वस्तुका अनुभव हो चुका है, उस वस्तुका संस्कार भागनेसे स्मरण पैदा होता है । जैसे 'वह महर्षि यह 'वह' आकार, स्मरणमें होता है। इसे कोई लोग अममाण कहते हैं। मगर अप्रमाण होनेकी कोई मजबूत सबूत नहीं दिखाई देवी, अनुमानसे गृहीत हुए भागका प्रत्यक्षबान, क्या गृहीत ग्राही नहीं है ? तिस पर भी क्या अपमाण है ?, जब बहुतसे गृहीत नाही मान, प्रमाण रूपसे स्पष्ट मालूम पड़ते हैं, तो फिर स्मरणके ऊपर इतना अपरितोष क्यों ?, जिससे गृहीत ग्राहिस्वका दूषण लगा कर उसकी प्रमाणता तोड दी जाय । “विषय नहीं रहते पर भी जब स्मरण पैदा होता है, तो फिर वह प्रमाण कैसे कहा जाय ?", यह भी शंका करनी ठीक नहीं है, क्यों कि 'अमुक अमुक हेतुसे, इस जगह दृष्टि हुई है' ऐसा भूतपूर्व वस्तुका अनुमान नैयायिक विद्वानोंने स्वीकारा है । क्या इस अनुमानके उदय होनेके वक्त, वृष्टि क्रिया मौजूद है ? शर्गिज नहीं, तो भी यह अनुमान, जैसे प्रमाण माना जाता है,