________________
न्याय शिक्षा ।
किया । तथा इन्द्रोंके बनाये हुए अति अद्भुत समवसरणमें बैठ कर, पांतीस गुण युक्त मधुर वाणीसे उपदेशद्वारा जगत्का अज्ञान तिमिर उडा दिया । वे शरीरधारी, साक्षात् जगन्नाथ जगदीश पुरुषोत्तम महेश्वर परमेश्वर, तीर्थंकरदेव समझने चाहिये
वे ही धर्मके स्थापक-पादुष्कारक-प्रकाशक कहे जा सकते हैं। और साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध
संघ (तीर्थ) की स्थापना करनेसे तीर्थकर कहे जाते हैं। . इन्हीके चरणकमलोंकी सेवासे जिन पुण्यात्माओंके घाति
कर्म नष्ट हो गये हैं, और जो केवलज्ञान पा चुके हैं, वे . सामान्य केवली समझने चाहिये। . ये दो प्रकारके जीवन्मुक्त सर्वज्ञ देव, अपनी आयु पूर्ण .. होने पर, सद् ब्रह्मानन्द-मोक्षमें लीन हो जाते हैं। इसीसे , यह भी बात प्रकट हो जाती है कि ईश्वर, सृष्टि रचना करनेमें फँसता नहीं है । रागद्वेष क्षय हुए विदुन ईश्वरपना जब नहीं मिलता है, तो फिर रागद्वेष रहित ईश्वरसे सृष्टि निर्माणकी संभावना कैसे की जाय ?।..
__ अत एव किसी भी कारणसे, संसारमें ईश्वरका अवतार मानना भी न्याय विरुद्ध है।
__ 'समस्त कर्मोका क्षय हुए बिदुन ईश्वरत नहीं हो सकता' यह सिद्धान्त सभी आस्तिकों के लिये अगर माननीय है, तो कौन ऐसा बुद्धिमान होगा, जो कि निर्लेप ईश्वरका भी, विना ही कर्म, शरीर धारण करना और संसारमें आना स्वीकारेगा ? । बिना ही कर्म, संसार योनिमें आना अगर मंजूर हो, तो मुक्त जीव भी, बिना ही कर्म, संसार योनिमें क्यों नहीं आयेंगे? ।