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ग्रन्थ के विषय का मोटे तौर पर अवलोकन किया जाय तो इस में सात नयों का ही प्रतिपादन है । प्रारम्भ में सातों नय का साधारण लक्षण और उस की परीक्षा प्रस्तुत है । नय का लक्षण दिखाने से दुर्नय के स्वरूप का भी फलित स्वरूप परिचित हो जाता है । बाद में, नय के पर्यायवाची शब्द दिये हैं । उस के बाद नयों में विप्रत्तिपत्तित्व की शका का निरसन कर के भेदाभेदादि के विरोध का जात्यन्तर स्वीकार से परिहार कर दिखाया है । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयविभाग दिखाने के बाद सात नय की उत्तरोत्तरविशुद्धि स्फुट करने के लिये शास्त्रप्रसिद्ध प्रदेश-प्रस्थक और वसति दृष्टान्त का विस्तार से निरूपण है । उसके बाद प्रत्येक नयों का लक्षण और स्वरूप प्रतिपादन तथा प्रत्येक नयों की अपनी अपनी मान्यता का समर्थन प्रस्तुत किया गया है । नैगमादिनयों को कितने कितने निक्षेप स्वीकार्य है यह भी स्फुट किया है । साम्प्रतनय के विवरण में सप्तमगी का भी सुदर परिचय दिया गया है । सात नय के स्वरूप विवरण के बाद जीव-अजीव-नोजीव
जीव इन में सात नय का अवतार दिखाया है । तदनन्तर कोन सा नय बलवान् और कोन सा निर्बल इस के विचार में कहा है कि यहाँ अपेक्षा ही शरण है । इस में क्रियानयाभिमत कुर्व द्रूपत्वविशिष्ट चरमकारण की दीर्घ समीक्षा विशेषतः मननीय है और ‘क्रियमाण कृत' इस विषय की भी समालोचना सुदर है । इस प्रकार मध्यमपरिमाणवाले ग्रन्थ में श्रीमद्जी ने नय के अनेक पहलूओं को मनोहर ढंग से प्रस्तुत कर दिये हैं जो नयपदार्थ के जिज्ञासुओं के लिये अतीव व्युत्पादक एवं उपकारी है ।
नय के विषय में उपाध्यायजीने ज्ञानसार के अंतिम अष्टक में नयज्ञान के फल का सुदर निरूपण इस प्रकार किया है-“सर्वनयों के ज्ञाता को धर्म वाद के द्वारा विपुल श्रेयस् प्राप्त होता है जब कि नय से अनभिज्ञ जन शुष्कबाद-विवाद में गिरकर विपरीत फल प्राप्त करते हैं । निश्चय और व्यवहार तथा ज्ञान एव' क्रिया-एक एक पक्षों के विश्लेष यानी आग्रह को छोड कर शुद्धभूमिका पर आरोहण करने वाले और अपने लक्ष्य के प्रति मूढ न रहने वाले, तथा सर्वत्र पक्षपात से दूर रहने वाले, सभी नयों का आश्रय करनेवाले (सज्जन) परमानंदमय होकर विजेता बनते हैं । सर्वनयों पर अवलम्बित एसा जिनमत जिनके चित्तमें परिणत हुआ और जो उनका सम्यक् प्रकाशन करते हैं उनको पुनः पुनः नमस्कार है ।"
निष्कर्ष यह है कि कदाग्रह का विमोचन और वस्तु का सम्यक् बोध नय का फल है और उससे सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, पुष्ट होता है और मुक्तिमार्ग की ओर प्रगति बढ़ती है।
प्राचीन काल में जब भी आगमसूत्रों का व्याख्यान होता था तब वहाँ नयों का भी अवतार दिखाया जाता था। किंतु पश्चात् काल में सूक्ष्मनयों का ज्ञान सभी को परिणत होने की सम्भावना न रहने से कालिकश्रत को मूढनयिक कहा गया अर्थात् अब कलिकश्रुत में नयों का अवतार नहीं किया जाता । 'तब क्या अब जो सूत्रों की व्याख्या है वह नयविवर्जित है ?' ऐसा प्रश्न हो सकता है । इसका उत्तर यह है कि सूत्र की व्याख्या के जो उपक्रम-निक्षेप-अनुगम और नय ये चार अंग हैं उन में से नय तो साम्प्रत काल में नहीं रहे इसलिये पश्चात्काल भावी आचार्यो ने जो सूत्रों की व्याख्या प्रस्तुत की उसको अनुगम स्वरूप ही समझना चाहिये । यद्यपि अनुगम भी नयवर्जित तो हो ही नहीं सकता, किंतु अनुगमात्मक व्याख्या में यह नहीं कह सकते कि कौनसी व्याख्या किस नय के अवलम्ब से की गयी है। यह विशेषतः विचार करने योग्य है। शास्त्रकारोंने नय का सर्वथा अवतार नहीं होने का नहीं कहा है, अपितु श्रोताविशेष की अपेक्षा नयों के अवतार : सूत्र की व्याख्या करने की अनुज्ञा भी है। हमारे ख्याल से वर्तमान काल में सूत्रों की जो विद्यमान व्याख्या हैं वे प्रायः व्यवहारनयानुसारिणी ही होने का सम्भव है चकी जैन शासन के सभी अंगों में व्यवहारनय की ही मुख्यता देखी जाती है। फिर भी अन्य नयों के मिश्रण का भी इन्कार नहीं हो सकता ।
इस ग्रन्थ के रचयिता श्रीमद उपाध्याय यशोविजयजी महाराज जन-जनेतर विद्वद्वर्ग में सुप्रसिद्ध विद्वान हैं। उन का संक्षिप्त परिचय यह है-वि. सं. १६८० के समीप गुजरात के पाटणनगर के पास 'कनोड'