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नय रहस्ये प्रदेश दृष्टान्तः
एवम्भूतस्त्वाह- देशप्रदेशकल्पनारहितमखण्डमेव वस्तु अभिधानीयम् देशप्रदेशयोरसत्वात् भेदे सम्बन्धानुपपत्तेः, अभेदे सहोक्त्यनुपपत्तेः । न च विन्ध्य हिमवदादिभावाऽवच्छेदकतयाऽऽकाशादिदेश सिद्धिः परेण समं सम्बन्धस्यैवाऽनुपगमात्, तादात्म्य-तदुत्पच्यन्यतरानुपपत्तेरिति दिक् ।
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[ अभेद में सप्तमीप्रयोग के समर्थन की आशंका ]
यहाँ यह आशंका हो सकती है कि- “ जहाँ सप्तमी का प्रयोग हो, वहाँ भेद रहता में ही है, ऐसा नियम नहीं है । कभी कभी आधार और आधेयरूप से अभिमत वस्तु भी अभेद ही रहता है, और सप्तमी का प्रयोग होता है । जैसे- "यह व्यक्ति ब्राह्मणों में श्रोत्रिय है ।" इस वाक्य में सप्तमी का प्रयोग है, तथा ब्राह्मण और श्रोत्रिय इन दोनों में आधाराधेय भाव भी प्रतीत होता है, परन्तु आधारत्वेन भासमान ब्राह्मण और आधेयत्वेन भासमान श्रोत्रीय में परस्पर भेद भासमान नहीं है क्योंकि ब्राह्मण से अभिन्न श्रोत्रीय का बोध होता है अर्थात् श्रोत्रीय में ब्राह्मणरूपता का बोध होता है । ऐसे ही 'अरण्य में तिलक नाम के अनेक वृक्ष हैं' ऐसा वाक्यप्रयोग तिलक नामक वृक्षों के वन में हता है । यहाँ भी सप्तमी का प्रयोग है । अरण्य में आधारता की प्रतीति और तिलक पद के अर्थ में आधेयता की प्रतीति होती है । परन्तु अरण्य और तिलक में भेद नहीं भासित होता है क्योंकि वह अरण्य तिलकवृक्ष के समूह से भिन्न नहीं है । उसी तरह 'धर्म में प्रदेश है' ऐसा वाक्यप्रयोग होने पर भी धर्म और प्रदेश में अभेद ही विवक्षित रखें तो भेद का प्रसंग नहीं आता है। तब तो 'शब्दनय' की मान्यता में क्या असंगति है ?" -
[ सप्तमी के प्रयोग से अनिश्चित बोध की आपत्ति ]
इस आशंका का समाधान यह है कि सप्तमी के प्रयोग रहने पर कभी अभेद का भी बोध होता है इतना तो ठीक है, परन्तु ऐसे स्थलों में नियमतः अभेद का ही बोध हो ऐसा तो नहीं है । तब तो 'धर्म में प्रदेश है' ऐसे वाक्यप्रयोग से धर्म और प्रदेश इन दोनों में 'भेद है या अभेद है', यह संशय जरूर होगा । अभेद का बोध निश्चित नहीं होगा । निश्चित अभेद बोध के लिए " कर्मधारय समास " का ही आश्रय करना पडता है । जैसे नीलोत्पल शब्द में कर्मधारय समास होने से नील पदार्थ का अभेद उत्पल पदार्थ में निश्चितरूप से ज्ञात होता है । इस हेतु से 'धर्म में प्रदेश' ऐसा वाक्यप्रयोग यद्यपि शब्दनय को सम्मत है किन्तु समभिरूढ की दृष्टि में वह ठीक नहीं है । अपितु 'धर्मः प्रदेशः' ऐसा द्वितीय वाक्यप्रयोग जो " शब्दनय" ने बताया है, जिस में धर्मशब्द भी प्रदेशशब्द के जैसे प्रथमान्त ही प्रयुक्त हुआ है वही पक्ष युक्तियुक्त है । ऐसी मान्यता "समभिरूढनय" की है ।
[ प्रदेश दृष्टान्त में एवम्भूत नय का निरूपण ]
" एवम्भूत" इत्यादि - एवम्भूतनय, 'धर्म प्रदेश है' ऐसी मान्यता जो “समभिरूढनय" की है, इस में सम्मत नहीं है। क्योंकि “एवम्भूतनय" के मत से देश-प्रदेश की कल्पना