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नयरहस्य
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" द्रव्यपर्याययोर्वास्तवोऽभेद एव, संख्या संज्ञालक्षण कार्यभेदाच्च स्वाभाविको भेद" इति तु न रमणीयम् भेदस्याऽस्वाभाविकत्वे संख्यादीनां निरालम्बनत्वाऽऽपातात् । होगा | जैसे-गोत्वेन रूपेण गोप्रतियोगिभेद और गोत्वेन रूपेण गोप्रतियोगि अभेद का विरोध है । एवं तदवच्छेदेन तत्प्रतियोगिभेद और तदवच्छेदेन तत्प्रतियोगि अभेद का विरोध मानना होगा । ऐसे प्रतियोगिअवच्छेदक सम्बन्ध आदि का प्रवेश कर के विशेषरूपेण भेदाभेद का एकवस्तु में समावेश नहीं होता है यही नियम मानना आवश्यक होगा । तब सामान्यरूप से भेदाभेद का एकवस्तु में समावेश होने में कोई बाधक न होने से एक वस्तु में भेदाभेदादि का अनुभव भ्रमरूप नहीं है, किन्तु प्रमात्मक ही है, तब उस अनुभव से भेदाभेदात्मक वस्तु को मानना युक्त ही है । यह स्यादवादी का अभिप्राय है । [ द्रव्य - पर्याय में वास्तवाभेदवादीमत का विस्तरण और निराकरण ]
'द्रव्यपर्याययोः' इति - स्यादवाद सिद्धान्त में द्रव्य और पर्याय इन दोनों में भेद और अभेद ये दोनों वास्तविक ही माने गए हैं । किन्तु किसी विद्वान का यह मन्तव्य है कि, "अभेद तो वास्तविक है और भेद वास्तविक नहीं है । उन का आशय यह है कि मिट्टी - सुवर्णादि ही घटशरावादिरूप से तथा कटक - कुंडलादिरूप से परिणाम को प्राप्त होते हैं । इसलिए घट - शरावादिरूप पर्याय मृद्रव्यरूप ही है, किन्तु उस से भिन्न नहीं है । तथा - कटककुण्डलादिरूप पर्याय सुवर्णद्रव्यरूप ही है । इस हेतु से द्रव्य और पर्याय में वास्तविकरूप से अभेद ही है, भेद नहीं है । तब जो भेद की प्रतीति होती है, वह अस्वाभाविक है । अर्थात् उपाधि के प्रभाव से कल्पित है। जिन उपाधियों के द्वारा द्रव्यपर्यायों में भेद की कल्पना होती है, वे उपधियाँ चार प्रकार की हैं। संख्याभेद, संज्ञाभेद, लक्षणभेद और कार्यभेद । 'मृद्र द्रव्य एक है' 'सुवर्णद्रव्य एक है,' ऐसा व्यवहार होता है इसलिए मृदादि द्रव्य में एकत्व संख्या है। घट दो हैं-घट बहुत है, शराब दो है-तीन हैं, चार हैं, ऐसा व्यवहार पर्यायों होता है, इसलिए घटशरावादि पर्यायों में द्वित्व, त्रित्वादि संख्याएँ हैं । इस तरह द्रव्य और पर्यायों में संख्याभेद है । इसी रीति से सुवर्णादि द्रव्यों में और उनके कटककुण्डलादि पर्यायों में भी संख्याभेद हैं । एवं मृद् द्रव्य की 'मृद्र' यह संज्ञा है । घट-शरावादि पर्यायों की घट-शराव - उदंचन इत्यादि संज्ञाएँ । इसीतरह सुवर्णद्रव्य की सुवर्ण यह संज्ञा है और उस के पर्यायों की कटक, कुन्डल, स्वस्तिक, रुचक इत्यादि संज्ञाएँ हैं । इस तरह क्रय और पर्यायों में संज्ञाभेद भी व्यवहार से सिद्ध होता है । तथा मृत्त्वजातिमान् जो हो वह मृत्तिका कहलाती है और घटत्व जातिमान् जी हो वह घट कहलाता है । इस तरह मृदरूप द्रव्य और घटरूप पर्याय में लक्षण का भी भेद है । वैसे ही सुवर्णत्व जातिमान् सुवर्ण कहा जाता है और कटक त्वादिजातिमान् कटक आदि कहा जाता है । इस रीति से सुवर्ण और उस के कटक आदि पर्यायों में लक्षण का भेद है । तथा मृद का कार्य भीत्ति, घट, भूमिलिंपन आदि है और घटादि पर्यायों का कार्य जलाहरण आदि है इस तरह मृत् द्रव्य और उस के पर्यायों में कार्यभेद भी दृष्टिगोचर है । सुवर्ण द्रव्य का कार्य सुवर्णभस्म इत्यादि प्रसिद्ध है । कटककुंडलादि का कार्य शरीर की शोभा को बढाना इत्यादि प्रसिद्ध है । इस तरह