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प्रकाशकीयस्पन्दन
एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्मों का होना जिस दर्शन को अभिमत नहीं है वे सभी दर्शन एकांत है । इन दर्शनो में एकांतवाद होने के कारण वस्तु के स्वरूपको समझने का कार्य केवल प्रमाण व्यवस्था से चल जाता है। किन्तु जैन दर्शन में एसी बात नहीं है । वस्तु के स्वरूप को समझने के लिये भिन्न भिन्न दृष्टि से जाँचना जैन दर्शन में अनिवार्य है । फलतः विविध अपेक्षा से एक ही वस्तु में नित्यत्व-अनित्यत्व, अस्तित्वनास्तित्व आदि परस्पर विरोधी धर्म, संशोधन के फलस्वरूप दिखाई पड़ते हैं । वस्तु कैसी है ? इस प्रश्न का निराकरण जब किसी एक अपेक्षा से किया जाता है तब उस समाधान से प्राप्त हुआ ज्ञान 'नय' है । यद्यपि नय एकांत होता है तथापि वह अन्य नय से प्राप्य धर्भ का निषेध नहीं करता है । तथा, इसी प्रकार नयों के समूह से वस्तु के समग्र स्वरूप को जाँचकर समझना उसे अनेकांत या प्रमाण कहते हैं । जन दर्शन में प्रमाण के साथ साथ नयव्यवस्था के प्रतिपादन में यही मुख्य कारण है।
तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में वाचकवर्य उमास्वातीजी महाराजा कहते हैं कि 'प्रमाणनयरधिगमः' वस्तु के स्वरूप का ज्ञान प्रमाण तथा नयों द्वारा होता है । जन आगम तथा अन्य शास्त्रों जीव-अजीव आदि सर्व वस्तु का ज्ञान कराता है । इसलिये जैन आगम तथा शास्त्रो में प्राप्त होता हुआ तत्त्वनिरूपण प्रमाण और नय ये दोनों प्रकार से होता है । यदि जैन शास्त्रों को आप हृदयंगम करना चाहते हैं, यदि जन शास्त्रों से प्राप्त अध्यात्म
। आप आत्मसात् करना चाहते हैं तो सिर्फ प्रमाण का ज्ञान कर लेने पर संतोष नहीं मान सकते हैं, अपितु नय का ज्ञान करना भी अनिवार्य हो जाता है ।
उपर्युक्त विचारणा प्रस्तुत 'नयरहस्य' नामक ग्रंथ के प्रकाशन में भी कारणरूप है।
वैसे भी नय के सम्यक् स्वरूप का ज्ञान करना बडा कठिन है । उपरांत, महामहोपाध्याय यशोविजयजी म. सा. ने नय का विवरण करते हुए नव्य न्याय शैली का भरपुर प्रयोग किया है। इसलिये सामान्य वाचक के लिये इस ग्रंथ में प्रवेश करना भी दुलर्भ हो जाता है। इस बात को ध्यानमें रखते हुए विवरण भी सम्मिलित किया गया है।
कुछ वर्ष पहले प. पू. पन्यास श्रीमद् जयघोष विजय गणिवर्य से प्रेरित होकर द्विजोत्तम 'डितजी श्री दुर्गानाथ झा ने नयरहस्य ग्रन्थ के विवेचन करने का कार्य प्रारम्भ किया । इस कार्य में जितने जैनजैनेतर न्याय के ग्रन्थों की आवश्यकता थी वे सब पू. पन्यासजी महाराज ने उपलब्ध करवा दिये । एक ही वर्ष में विचक्षण पडितजी ने यह कार्य समाप्त करके पूज्य पन्यासजी को समर्पित किया । पूज्य पन्यासजी ने इस विवेचन को अपने शिष्य पू. मुनि श्री जयसुदर विजयजी को संशोधन और सम्पादन करने के लिये दिया । प. मुनिश्री ने जैनशास्त्रों की नीति-रीति के अनुसार अच्छी तरह संशोधन और सम्पादन करके मुद्रणयोग्य पांडु. लिपि सज्ज करके रख दी । इस बात का हमें पता चलते ही पूज्य पन्यासजी महाराज के पास जाकर इस बहमूल्य ग्रन्थरत्न के प्रकाशन का लाभ हमारी संस्था को देने के लिये विज्ञप्ति करने पर पूज्य पन्यासजी महाराजने हमें स्वीकृति देने की महती कृपा की है । मानार्ह श्री पंडितजी ने इस विवेचन में कहीं भी कसर नहीं रखी है और मूल ग्रन्थ के हार्द को स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त परिश्रम किया है यह निःशंक है ।
गुजराती वाचकगण को यह प्रश्न अवश्य होगा कि हमारे जैन संघमें अधिक जनसमुदाय गुजराती भाषा जानते हैं। ऐसा होने के बावजुद भी भावानुवाद हिन्दी भाषा में है । ऐसा क्यों ? इस का उत्तर यह है कि हिन्दी भावानुवाद विवरण को प्रगट करते समय हमारे सामने दो बातें थी । एक तो हमें पंडितजी दुर्गानाथ झा की ओर से इस ग्रन्थ का भावानुवाद विवरण हिन्दी में ही प्राप्त हुआ । दूसरे, हमारा मानना