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नयरहस्य
अत्र प्रापकत्वं इत्यादि-तत्त्वार्थ सूत्र के भाष्यकार ने नय शब्द का पर्याय प्रापक शब्द दिया है । उस में प्रापकत्व क्या है ? इस वस्तु को न्याय की परिभाषा में परिकृतरूप से उपाध्यायजी प्रदर्शित करते हैं।
प्रमाण से प्रतिपन्न अर्थात् प्रमाण के द्वारा सुनिश्चित और प्रतियोगि-प्रतियोगिमभावापन्न-यहाँ प्रतियोगि का अर्थ विरोधी है और प्रतियोगिमत् शब्द का अर्थ विरोध्य है, इसलिए विरोधिविरोधिमद्भाव को प्राप्त ऐसा अर्थ निकलता है, इस तरह के जो अनेक धर्म उनमें से कोई एक धर्म मात्र प्रकार यानी विशेषणरूप से जिस अध्यवसायविशेष में भासित होता है वह अध्यवसायविशेष प्रमाणप्रतिपन्न प्रतियोगिप्रतियोगिमद्भावापन्ननानाधर्मएकतरमात्र प्रकारक हैं, उसी को नय कहते हैं । प्रतियोगिप्रतियोगिमद्भावापन्न शब्द से प्रतियोगि-अनुयोगिभावापन्न ऐसा अर्थ भी लिया जा सकता है। यहाँ प्रमाण पद से प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्षप्रमाण दोनों का ग्रहण है। क्योंकि दोनों से ही अनन्त धर्मात्मक वस्तु का ज्ञान होता है। अनन्तधर्मात्मक वस्तु का किसी एक धर्म से जो ज्ञान करावे उसी का नाम नय है । जसे यह नित्य वा अनित्य है। यहाँ घटपटादि अथवा जीव-अजीव आदि वस्तु में अनन्त धर्म हैं । इसलिए नित्यत्व और अनित्यत्व भी उस में अपेक्षा से है ही । यह नित्यत्व और अनित्यत्व प्रमाण से निश्चित है और नित्यत्व का विरोधी अनित्यत्व है वसे अनित्यत्व का विरोधी नित्यत्व है। जब नित्यत्व विरोधी बनता है तब अनित्यत्व विरोध्य बन जाता है। जब अनित्यत्व विरोधी बनता है तब नित्यत्व विरोध्य बन जाता है। इसलिए ये दोनों धर्म प्रतियोगि-प्रतियोगिमद्भाव से आक्रान्त हैं अर्थात् विरोधि-विरोधिमद्भाव से युक्त हैं। इन दोनों धर्मो से किसी एक धर्म नित्यत्व या अनित्यत्व प्रकारक ज्ञान विशेष ही नय है क्योंकि सामान्यरूप से अर्थ के प्रकाश को करता है और स्वाभिमत युक्ति द्वारा नित्यत्वादि विशिष्ट अर्थ की आत्मा को प्राप्ति कराता है इसलिए प्रापकत्व भी नय में सुघटित ही है।
साधकत्वं तथाविधप्रतिपत्तिजनकत्वम् । [साधकेत्यादि] यहाँ तथाविध पद से प्रापकत्व के लक्षण में कथित पदार्थों का ग्रहण होता है । सर्वनाम शब्द पूक्ति वस्तु का परामर्शक होता है ऐसा नियम है। इस हेतु से तथाविध शब्द से प्रमाणप्रतिपन्न प्रतियोगि-प्रतियोगिमद्भावापन्न नानाधर्मएकतरमात्रप्रकारकत्व का लाभ होता है। प्रमाणप्रतिपन्न प्रतियोगिप्रतियोगिमद्धावापन्न नानापक तरमात्रप्रकारकप्रतिपत्तिजनकत्व ही साधकत्व पदार्थ सिद्ध होता है, यह भी नय का एक लक्षण हुआ। तथाविध शब्द से सूचित अर्थ इस लक्षण में प्रतिपत्ति का विशेषण बनता है। प्रतिपत्ति शब्द से ज्ञानरूप अर्थ यहाँ विवक्षित है । तब प्रमाण से प्रतिपन्न और विरोध्यविरोधकभाव से युक्त जो विविधधर्म, उनमें से किसी एक धर्म प्रकार रूप से जिस में भासित होवे ऐसे ज्ञान का जनक अध्यवसाय विशेष को नय कहते हैं-ऐसा इस लक्षण का भावार्थ है। उदाहरण तो सभी लक्षण का एक ही होगा। जैसे-घट में नित्यत्वअनित्यत्व एकत्व-अनेकत्वादि अनेक धर्म प्रमाण से सिद्ध हैं और नित्यत्व-अनित्यत्व परस्पर प्रतियोगिप्रतियोगिमदभावापन्न ही है अर्थात-परस्पर विरोधितया ज्ञात हैं।