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उपा. यशोविजयरचिते
रहती है। घटान्यान्यत्वरूप घटान्यापोह एक अभावरूप ही है, इसलिए अन्योन्याश्रय दोष को यहाँ अवसर हा नहीं है । यदि यह कहा जाय कि-"अखण्डाभावरूप घटान्यापोह होवे तो भी अभावात्मक सामान्य का स्वीकार व्यवहारनय में सिद्ध हो ही जाता है, तब 'व्यवहार की दृष्टि से सामान्य नहीं है', यह कहना कैसे संगत होगा ?"-इस का समाधान यह है कि अखण्डाभावरूप सामान्य भी व्यवहार के मत से मान्य नहीं है, इसलिए सामा. न्याभ्युपगम की आपत्ति नहीं आ सकती। तब सामान्य के अस्वाकार पक्ष में “यह घट है, यह घट है" इत्यादि अनुगतव्यवहार व्यवहारनय के मत से कैसे होगा ? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि "अयं घटः, अयं घटः, इदं द्रव्यम् , इदं द्रव्यम्" इत्यादि व्यवहारों में घट, द्रव्य आदि शब्दों का अनुगम तो अवश्य रहता है, वह घट-द्रव्यादि शब्दों के सम्पर्क के बिना नहीं हो सकता है, इसलिए अनुगतव्यवहार का नियामक शब्दानुगम ही हो जायगा, अतः सामान्य को मानने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
शब्दानुगम से अनुगत व्यवहार को नैयायिकादि अन्यवादी भी मानते हैं, क्योंकि कारणता-व्याप्ति आदि सकल कारणों में या सकल व्याप्तियों में अनुगत कोई एक धर्म इन के मत में भी नहीं है, तो भी घटकारणीभूत दण्ड-चक्र, चीवर, कुलालादि में 'कारणं कारणं' ऐसा व्यवहार होता है, उस अनुगतव्यवहार का नियामक दण्ड-चक्रादिगत कारणता नहीं हो सकती, क्योंकि कार्यनियतपूर्ववृत्तिरूप कारणता स्वरूपसम्बन्धात्मक होने के कारण दण्ड-चक्रादिरूप कारण भेद से भिन्न भिन्न है । 'कारणतावच्छेदक धर्म के द्वारा "कारण, कारणम्' यह अनुगत व्यवहार होता है, यह भी कहा जा सकता नहीं है क्योंकि दण्ड-चक्रादि सकल घट कारणों में घटजनकतावच्छेदक कोई एक अनुगत धर्म नहीं रहता। इसलिए "कारण, कारणम्" इस अनुगतव्यवहार में नियामक कारणशब्द का अनुगम ही हो सकता है, क्योंकि उक्त अनुगतव्यवहार में यदि कारण शब्द का अनुप्रवेश न हो तो वह अनुगत व्यवहार नहीं बन सकता है । एवम्, धूम में जो अग्नि की व्याप्ति है वह साध्यसामानाधिकरण्यरूप है, साध्यसामानाधिकरण्य शब्द का अर्थ साध्याधिकरण वृत्तित्व होता है, वह वृत्तित्व साध्याधिकरण के भेद से व्याप्यत्वेन अभिमत तत्-तत् धूमव्यक्ति में भिन्न-भिन्न है, अतः सकल धूमव्यक्तियों में व्याप्तिनामक अनुगमक कोई एकधर्म नहीं है । तथापि धूम अग्नि का व्याप्य है ऐसा अनुगत व्यवहार होता है । वह व्यवहार किसी को अनुगमक माने बिना संभवित नहीं है, इसलिए व्याप्यशब्द या व्याप्ति शब्द के अनुगम से ही उस अनुगत व्यवहार का उपपादन हो सकता है । इसतरह माने बिना नैयायिकों को भी कारणता और व्याप्ति के विषय में अनुगतव्यवहार नहीं हो सकता है, अतः व्यवहारनय भी सामान्य को माने बिना भी "अयं घटः, अयं घटः" अनुगतव्यवहार का उत्पादन कर लेगा तो इस की दृष्टि में सामान्य का अनभ्युपगम होने पर भी कोई क्षति नहीं है।
मूल ग्रन्थ में “व्याप्त्यादौ" ऐसा पाठ है, वहाँ आदि पद से कार्यता, पक्षता, प्रतियोगिता, अनुयोगिता, आधेयता, अधिकरणता ये सभी स्वरूपसम्बन्धात्मक धर्म ग्राह्य हैं। ये सभी धर्म स्वरूपसम्बन्धात्मक होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न भिन्न हैं इसलिए अनुगतव्यवहार के नियामक नहीं बन सकते हैं, तो भी 'इदं कार्य, इदं अनुयोगि, इदं