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उपा. यशोविजयरचिते “णेगेहिं माणेहिं मिणइ त्ती य णेगमस्स य निरुत्ती ॥ ति" (अनुयोगद्वार-१३६) सूत्रम् । नैकमानमेयविषयोऽध्यवसायो नैंगम इत्येतदर्थः । “निगमेषु येऽभिहिताः शब्दास्तेषामर्थः शब्दार्थप रिज्ञानं च देशसमग्रग्राही नैगम" इति तत्त्वार्थभाष्यम् । (१-३५) अत्र पूर्वदलं मदुक्तलक्षणकथनाभिप्रायम् , उत्तरदलं च विषयविभागविधानिरूपणाभिप्रायमात्रम् । देशग्राहित्वं-विशेषप्रधानत्वं, समग्रग्राहित्वं च सामान्यप्रधानत्वं पारिभाषिकम् । अन्यथा सामान्यविशेषयोद्ध योरपि वस्त्वेकदेशत्वात् किं (कथं) द्वैरूप्यं स्यात् ? एवमस्य प्रमाणत्वं स्यात् ? न स्यात् प्रत्येकं भेदशस्तदुभयविषयत्वेऽपि सम्भूयोभयविषयत्वाऽयोगात् । वस्तु सदविशिष्ट है, अतः द्वितीयपक्ष में जैन की मान्यता से कुछ अधिक कथन आप नहीं करते हैं । इसलिए आप का मत विद्वानों को नहीं जचता है । उपाध्यायजी यहाँ यह सूचित करते हैं कि श्रीहर्ष के मत का निराकरण दूसरे ग्रन्थों में सविस्तर किया गया है, इस हेतु से यहाँ संक्षेप से ही किया है। विशेष जिज्ञासावाले को शास्त्रवा दि ग्रन्थान्तर का अवलोकन करना चाहिए ।
यहाँ यह आशङ्का हो सकती है कि पैशेषिक तो सामान्य-विशेष को वस्त से पकान्त भिन्न मानते हैं, इसलिए उन की मान्यता जैनों की मान्यता से विरुद्ध है क्योंकि जैन सिद्धान्त में वस्तु मात्र सामान्य विशेषात्मक भी मान्य है, अतः सामान्य विशेषात्मकता वस्तु में निरूपण करने के प्रसंग में पैशेषिक मत का निराकरण तो संगत है किन्तु श्रीहर्ष के मत में वस्तु से एकान्त भिन्न सामान्य विशेष मान्य नहीं है, तो सामान्य. विशेषात्मक वस्तु निरूपण के प्रसंग में श्रीहर्ष के मत का प्रतिपादन और निरास न करने में कोई संगति नहीं बैठती । इस का समाधान यह है कि सभी वस्तु को "सदविशिष्ट" माननेवाले के मत में यद्यपि अतिरिक्त सामान्य विशेष का अभ्युपगम नहीं है, तथापि जैन सम्मत सामान्यविशेषात्मक वस्तु का भी अभ्युपगम नहीं है । इसलिए जैन की मान्यता से विपरीत मान्यता श्रीहर्ष के मत में भी है, अतः उस का निरसन किए बिना स्वसिद्धान्त का सम्पूर्ण प्रतिपादन नहीं हो सकता, इसलिए उस का भी निरसन करना आवश्यक ही है । जैन से विपरीत मान्यता रखनेवाले वैशेषिक के मत का निरसन करने के बाद श्रीहर्ष के मत का स्मरण हो जाता है, क्योंकि श्रीहर्ष भी जैन की अपेक्षया वस्तुस्वरूप में विरुद्ध मान्यता रखते हैं, अतः उन की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। अत एव उसके निरसन में प्रसंगसंगति होने से उसका निरसन असंगत नहीं है । कारण, "स्मृतिविषयत्वे सति उपेक्षानहत्वम्" यह प्रसंगसंगति का लक्षण श्रीहर्षमत के खंडन में घटित है।
[नैगमनय की सूत्रानुसार निरुक्ति ] (णेगेहिं) सामान्यविशेषात्मक वस्तु निरूपण के बाद ग्रन्थकार ने उक्त नगम लक्षण को प्रमाणित करने के लिए "अनुयोगद्वार" के (१३६ वे) सूत्र का उद्धरण किया है। ["नकैः