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है इसलिये सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। पारमाथिक प्रत्यक्ष के तीन भेद है। केवलज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, अवधिज्ञान । परोक्ष ज्ञान के दो भेद है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । इन्द्रियजन्य और मनोजन्य ज्ञान मतिज्ञान है पद-पदार्थ सम्बन्धजन्य ज्ञान श्रुतज्ञान है ।
हरेक सत् पदार्थ स्वभाव से ही अनंतधर्मात्मक है । एक दूसरे से विरोधी धर्म एक वस्तु में स्वभाव से ही विद्यमान है । नित्यानित्य, सदसत् आदि धर्म एक साथ ही वस्तु में विद्यमान है। अन्यथा उनका बोध सम्भव नहीं । परोक्ष ज्ञान की मर्यादा के कारण वस्तु का सर्वांगीण बोध शक्य नही । उसके एक अंश का ही बोध सम्भव है । वस्तु का यह स्वरूप ही स्याद्वाद और नयवाद को आधारशिला है ।
स्याद्वाद = 'स्याद्' का अर्थ है अपेक्षा । उपलभ्यमान वस्तु के अनेक अंशो में से एक अंश की जिज्ञासा या विवक्षा अपेक्षा पदार्थ है । अपेक्षा सहित का वाद स्याद्वाद है । वस्तु का अंश भावात्मक भी है और अभावात्मक भी । भाव की विवक्षा होती है अभाव की विवक्षा होती है। कदाचित् भावाभाव के क्रम की विवक्षा होती है । भावात्मक अंश और अभावात्मक अंश दोनों का एक साथ प्राधान्येन प्रतिपादन अशक्य है इसीलये इस अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य है। अव्यक्तव्यत्व की अपेक्षा का हेतु शाब्दिक ज्ञान की मर्यादा है। इस तरह भाव-अभाव-क्रम और अवक्तव्य इन चार अपेक्षातत्त्वो के संयोजन से सप्तभंगी का उदय होता है । सप्तभंगी का विवेचन निम्न प्रकार से है।
स्याद् अस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्ति स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्यम्, स्यादस्ति स्यादवक्तव्यम्, स्यान्नास्ति स्यादवक्तव्यम्, स्यादस्ति-स्यान्नास्तिस्यादवक्तव्यम् ।
नयवाद :- अनंत धर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म का प्राधान्येन अभिप्राय रखने वाली दृष्टि को 'नय' कहते है । सप्तभंगी शब्दात्मक है और नय बोधप्रधान है। दोनों में अपेक्षा तत्त्व समान है । सामान्यतः नय के सात प्रकार है । नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय,
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