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सविकल्पक प्रत्यक्ष जैसा भेद है। नामजात्यादि योजना रहित प्रत्यक्ष 'विज्ञान' है और नामजात्यादि योजना सहित प्रत्यक्ष 'संज्ञा' है ।
द्वितीय आर्यसत्य है 'दुःखसमुदय' । समुदय = कारण । दुःख का कारण कोई एक नहीं अपितु शृंखला है । इस शृंखला को द्वादशनिदान कहते है । जरामरण-जाति-भव - उपादान - तृष्णा - वेदना - स्पर्श - षडायतन - नामरूपविज्ञान-संस्कार-अविद्या । अन्तिम तत्त्व अविद्या समस्त दुःखो का मूल निदान है । उत्तरवर्ति निदान पूर्ववर्ति निदान का हेतु जनक है (इस तरह पूरी शृंखला दुःखसमुदय है) यह शृंखलाबद्ध कार्यकारणभाववाद प्रतीत्यसमुत्पाद के नाम से प्रसिद्ध है ।
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तीसरा आर्यसत्य है—'दुःखनिरोध' । दुःख के कारण दूर होने के कारण दुःख का नाश होता है ।
'दुःखनिरोधमार्ग' चतुर्थ आर्यसत्य है । इसका मतलब है निर्वाण का उपाय । आर्यअष्टांगिक मार्ग दुःखमुक्ति का एकमेव राजमार्ग है ।
सम्यग्ज्ञान-सम्यक्संकल्प- सम्यक्वचन - सम्यक्कर्मान्त (सदाचरण) सम्यगाजीव ( = न्याययुक्त द्रव्य साधना) सम्यग् व्यायाम ( = शुभ मानसिकता का उद्यम) सम्यक्स्मृति = चित्त शरीर इत्यादि के विषय में अनित्यादि की भावना) सम्यक् समाधि । आर्य अष्टांगिक मार्ग के आचरण से प्रज्ञा का उदय होता है और प्रज्ञा के उदय से निर्वाण प्राप्ति ।
दार्शनिक पृष्ठभूमि पर बौद्धदर्शन चार भागों में विभक्त है । वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक ।
वैभाषिक और सौत्रान्तिक बाह्यार्थ की सत्ता का स्वीकार करते है । योगाचार और माध्यमिक बाह्यार्थ की सत्ता का इन्कार करते है ।
वैभाषिको के मत से बाह्यार्थ सत् है और इन्द्रियगम्यप्रत्यक्ष है । दार्शनिक परिभाषा में वैभाषिको को बाह्यार्थप्रत्यक्षवादी के रूप में जाना जाता है । बाह्यार्थ की तरह निर्वाण भी वस्तुसत् पदार्थ है ।
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