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आत्मन् या ब्रह्मन् कहते हैं । यहाँ सत्, आत्मन् तथा ब्रह्मन् एकार्थक शब्द हैं । संसार इसी सत् से उत्पन्न हुआ है, इसी पर आश्रित है तथा प्रलय होने पर इसी में विलीन हो जाता है। संसार का नानात्व असत्य है । उसकी एकता ही एकमात्र सत्य है । 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म', 'नेह नानास्ति किञ्चन' उपनिषदों के ये वाक्य यह सिद्ध करते हैं कि संसार में एक ही सत्ता है. और इसका नानात्व असत्य है । आत्मा या ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। यह अनन्त ज्ञान तथा अनन्त आनन्द है ।
(१) शङ्कर ने उपनिषदों की व्याख्या विस्तार से की है। उनके अनुसार उपनिषदों में विशुद्ध अद्वैत की शिक्षा दी गयी है। ब्रह्म एकमात्र सत्य है । इसका अर्थ केवल यह नहीं कि ईश्वर के अतिरिक्त और कोई सत्ता नहीं है, अपितु ईश्वर के अन्तर्गत भी कोई दूसरी सत्ता नहीं है । 'नेह नानाऽस्ति किञ्चन', 'तत् त्वम् असि', 'अहं ब्रह्मास्मि', 'सर्वं खलु इदं ब्रह्म' इत्यादि उक्तियाँ उपनिषद् की उक्तियाँ हैं । यदि ब्रह्म के अन्तर्गत अनेक सत्ताओं का समावेश माना जाय तो इन उपनिषदों की उक्तियों की समुचित व्याख्या नहीं की जा सकती । यह सत्य है कि कुछ उपनिषदों में इस बात का उल्लेख है कि ब्रह्म या आत्मा के द्वारा संसार की सृष्टि हुई है । किन्तु अन्य उपनिषदों में, यहाँ तक कि वेदों में भी, संसार की सृष्टि की तुलना इन्द्रजाल से की गयी है । ईश्वर को मायावी माना है जो अपनी मायाशक्ति से संसार की रचना करता है ।
शङ्कर का यह कथन है कि यदि पारमार्थिक सत्ता एक है तो संसार की सृष्टि वस्तुतः सृष्टि नहीं है । ईश्वर अपनी माया-शक्ति द्वारा संसार का इन्द्रजाल रचता है । साधारण बुद्धि वालों के लिये मायावाद को बोधगम्य बनाने के निमित्त शङ्कर दैनिक जीवन के साधारण भ्रमों की सहायता लेते हैं । कभी कभी रस्सी साँप के रूप में ज्ञात होती है । सीप को देखकर चाँदी का अनुभव हो जाता है। ऐसे अनुभव 'भ्रम' कहलाते हैं । सभी प्रकार की भ्रान्तियों में एक अधिष्ठान रहता है जो सत्य होता है । ऊपर के उदाहरण में सीप तथा रस्सी ऐसे अधिष्ठान हैं । अज्ञान के कारण ऐसे अधिष्ठानों पर अन्य वस्तुओं का अध्यास या आरोप होता है । अध्यस्त वस्तु सत्य नहीं
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