SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ विश्वतत्त्वप्रकाशः [प्र.५२ औदारिक (मनुष्यादि का ), वैक्रियक ( देवादि का ), आहारक ( भुनि के क्रोध या कृपा से उत्पन्न ), तैजस तथा कार्मण ( कर्मपरमाणुओं का समूह ); इन में तैजस तथा कार्मण ये दो शरीर सभी प्राणियों के होते हैं - वे अति सूक्ष्म परमाणुओं से बने हुए होने से अदृश्य एवं अप्रतिबन्धक ( दूसरे द्रव्यों को न रोकनेवाले ) होते है | किन्तु न्यायमत में शरीर के ऐसे A प्रकार नही माने हैं - वे सभी शरीरों को पृथ्वी - परमाणुओं से अतः ईश्वर का शरीर भी इन परमाणुओं से युक्त् ही होगा, व्यापी नहीं हो सकता | सहित मानते है । इसलिए वह सर्व पृष्ठ ५३ - - ईश्वर का शरीर नित्य है या अनित्य यह चर्चा विद्यानन्द ने प्रस्तुत की है २ । पृष्ठ ५४ - - ईश्वरवादी दर्शनों में प्रायः ईश्वर या उस के अवतारों को मानवीय गुणदोषों से युक्त माना है - ईश्वर सज्जनों का रक्षक तथा दुष्टों को दण्ड देनेवाला माना है। जैन दृष्टि से यह बात ठीक नही; जिस परम पुरुष में ज्ञान का चरम उत्कर्ष हो उस में वैराग्य का भी चरभ उत्कर्ष होता है, अतः वह संसार के गुणों तथा दोषों से अलग होता है । इस लिए शिव या विष्णु के लोकप्रसिद्ध रूप की जैन लेखकों ने बहुधा आलोचना की है । इस का अच्छा उदाहरण पात्रकेसरिस्तोत्र में प्राप्त होता है । पृ. ५५ -- राजा और नौकरों का दृष्टान्त होने की चर्चा में पुनः उपस्थित किया है (पृ. २०५) । आत्मा के अणु आकार का पृ. ५६ -- ईश्वर यदि दयालु है तो वह दुःखमय संसार का निर्माण क्यों करता है यह आक्षेप मीमांसकों ने भी प्रस्तुत किया है । इस के उत्तर में नैया १) तत्त्वार्थसूत्र _ २-३६-४२ – औदारिकवैक्रियकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि । परं परं सूक्ष्मम् । प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् तैजसात् । अनन्तगुणे परे । अप्रतीघाते । अनादिसंबन्धे च । सर्वस्य ॥ २ ) आप्तपरीक्षा - १९-२० - देहान्तराद् विना तावत् स्वदेहं जनवेद्यदि । तदा प्रकृतकार्येऽपि देहाधानमनर्थकम् ॥ देहान्तरात् स्वदेहस्य विधाने चामवस्थितिः। तथा च प्रकृतं कार्यं कुर्यादीशो न जातुचित् ।। ३) श्लोक २९-३५ : हरो हसति चायतं काट्टहासोल्वणं कथं परमदेवतेति परिपूज्यते पण्डितैः । प्रसन्नकुपि - तात्मनां नियमतो भवेद् दुःखिता तथैव परिमोहिता भयमुपद्रुतिश्चामयेः । इत्यादि । ४) कुमारिल - मीमांसा श्लोकवार्तिक पृ. ६५२ - सृजेच शुभमेवैकम् अनुकम्पाप्रयोजितः । इत्यादि ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy